पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२२५

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२२२ मूर्खता-मू» "क्रियाहीनस्य मूर्खस्य महारोगिण एव च। । है। तीन ग्राम होनेके कारण २१ मूर्च्छनाएं होती हैं, यथेष्टाचरणस्याहु मरणान्तमशौचकम् ॥ जैसे-ललिता, मध्यमा, चित्रा, रोहिणी, मतङ्गजा, 'क्रियाहीनस्य नित्यनैमित्तिक क्रियाननुष्ठायिनः मूर्खत्य गायत्री सौवीरी, षण्डमध्या, षड़ज, पञ्चमा, मत्सरो, मृदुमध्या, रहितत्य (शुद्धितत्व ) ४ अज्ञ, नासमझ, जाहिल । नव- शुद्धान्ता, कलावती, तोवा, रौद्रो, ब्राह्मी, वैष्णवी, खेदरी, रत्नमें लिखा है, कि मूर्ख बातोंसे वशीभूत रहते हैं। । सुरा, नादावत और विशाला। "मित्र स्वच्छतया रिपु नय वलेल्ब्धं धनरीश्वरं । महादेवने इन सबका मूछना नाम रखा है- कार्येण द्विजमादरेण युवतीं प्रेम्ना गुणैर्वान्धवान् ॥ "स्वरः संमूछितो यत्र रागता प्रतिपद्यते । अत्यु स्तुतिभिर्गुरु प्रणतिभिर्ख कथाभिबंध। मर्छनामिति तामाहुः कवयो ग्रामसम्भवाम् ॥ विद्याभी रसिकं रसेन सकलं शीलेन कुर्याद्वशम् ॥" ललिता मध्यमा चित्रा रोहिणी च मताजा। (भवरत्न ) सौवीरी पण्डमध्या च षड्न मध्यम-पञ्चमा । मूर्खता ( सं० स्त्री० ) मूर्खस्य भावः तल-टाप् । मूर्खत्व, मत्सरी मृदुमध्या च शुद्धान्ता च कलावती। वेवकूफो। तीवा रोद्री तथा ब्राह्मी वैष्यावी खेदरी सुरा॥ "अदाता वंशदोपेण कर्मदोषाद्दरिद्रता । नादावती विशाला च त्रिषु यामेषु विश्रुताः । उन्मादो मातृदोपेण पितृदोपेण मूर्खता ॥" (चाणक्य) एकविंशतिरित्युक्त्वा मूर्छना चन्द्रमोलिना ॥ . वंशदोषले कृपण, कर्मदोपसे दरिद्र, मातृदोषसे मूर्च्छनां कलयतो मुरशोशिका ध्वनिविशेषवितानः । उन्माद और पितृदोपले मूर्खता प्राप्त होती है। पिताके मूर्च्छना ययुरनमशरोधैरङ्गना रतिपतेरिव सेना ॥" दोषसे पुत्र मूर्ख होता है। (सङ्गीत-दामोदर) तिथितत्त्वमें लिखा है, कि अष्टमी तिथिमें नारियल षड़ज प्रामकी मूछना, जैसे ललिता, मध्यमा, चित्रा, खानेसे मूर्ख होता है। रोहिणी, मतङ्गजा सौवीरो षएडमध्या। "कलको जायते विल्वे तिर्यगयोनिश्च निम्बके ! मध्य प्रामको मूछना, जैसे-पञ्चमा, मत्सरी, मृदुः ताले शरीरनाशः स्यान्नारिकेले च मूर्खता ॥" मध्या, शुद्धा, अन्ता, कलावती, वीवा। (तिथितत्त्व) गान्धार प्रामको मूछना, जैसे-रौद्रो, ब्राह्मी, मूर्खत्व (सं० पु० ) अज्ञता, नादानो। वैष्णवी, खेदरी, सुरा, नादावती और विशाला। मूर्खभ्रातृक (सं० पु०) मूर्को भ्रातास्येत्ति, नित्यं कप। (सङ्गीतशास्त्र) मूर्ख भ्रातृयुक्त, जिसके भाई मूर्ख हों। मूर्छा (सं० स्त्री० । मूछ (गुरोश्च हलः । पा २३।१०३) मूखिमा (सं० पु०) मूर्खस्य भावः ( वर्णदृढ़ादिभ्यः व्यञ्च् । इति अ टाप। १प्राणीकी वह अवस्था जिसमें उसे पा ५।९।१२३ ) इति भावे इमनिच् । मूर्खता, मूर्खका किसी वातका ज्ञान नहीं रहता, वह निश्चेष्ट पड़ा रहता भाव या धर्म। हैं। २ मूछना, रागगतिविशेष । मूर्छन (सं० पु०) १ संज्ञा लोप होना या करना, वेहोश "क्रमात् स्वराणां सप्तानामारोहचावरोहणम् । करना। २मूच्छित करनेका मन्त्र वा प्रयोग । ३ काम- सा मूर्छत्युच्यते ग्रामस्था एताः सम सप्तच ॥" देवका एक वाण। (शिशुपालटीका १११० मल्लिनाथ) मूछना (सं० स्त्री०) मूर्छ-युच टाप् । सङ्गीतमें एक ___क्रम क्रमसे सातों स्वरोंका जो आरोह और अधरोह ग्रामसे दूसरे ग्राम तक आरोह-अवरोह । प्रामके सातवें भागका नाम मूर्च्छना है। भरतके मतसे गाते समय होता है उसे मूर्छा कहते हैं। यह प्रामस्थित है तथा गलेको कपानेसे ही मूर्छना होती है और किसी किसी प्राममें सात सात मूर्छा है। ३रोगभेद । का मत है, कि स्वरके सूक्ष्म विरामको ही मूर्च्छना कहते | मूरोिग देखो।