पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२१९

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२२६ मूत्रविज्ञान ठाणुवीक्षण द्वारा परीक्षा करनेसे बहुसंख्यक एपिथेलि-। शिरोवेदना होती है। धीरे धीरे मूत्रक्षयविकारके लक्षण घेल कोप, लोहित रक्त कणिका, निःसृत फाइविन और | भी देखे जाते हैं। युरिनारि काप्ट देखने में आते हैं । एपिथेलियेल कोष रोगी हमेशा कमरमें दर्द मालूम करता है तथा रात- बढ़ कर ट्यूवके मध्य एकत्र अवस्थान करता है । कोपमें | को वार वार मूत्रत्याग होता है। वह मूत्र धूम्र, पाटल चवीं और प्रोटिन विन्दुके रहनेसे वह बड़ा, अस्वच्छ और | अथवा कालापन लिये लाल होता है। आपेक्षिक गुरुत्व बादलके जैसा दिखाई देता है। कोषके इस वद्धित १२५से १३० है। रासायनिक परोक्षासे एलवुमेन पाया आकार वा स्फीतताको 'Cloudy surelling' कहते हैं। जाता है । अणुवीक्षणको सहायतासे लोहित रक्तकणिका, दूसरे दूसरे ट्यूवमें एपिथेलियमका चिह्नमात्र भी नहीं परिवर्चित वा भग्न एपिथेलियलकोष, फाइविन- रहता, केवल फाइत्रिनका सांचा रहता है। उस सांचे कणा और रक्त, एपिथेलियल हायलिन वा प्रेनि- के मूत्रद्वार हो कर निकल जानेसे उसे हायलिन काष्ट उलरके सांचे आदि दिखाई देते हैं। कभी कभी रोगी- ( Hyalinc cast ) कहते हैं। अन्यान्य उपसौके के बाई ओरका कोष (Left ventricle) बढ़ा हुआ तथा मध्य वायुनालोमे प्रदाह, फुस्फुस-प्रदाह, वक्षोन्तर्वेष्टौप, प्रकोष्ठास्थित सम्बन्धीय ( Radial ) धमनी सिकुड़ी हृदन्तरवेष्टौप और शोथ देखा जाता है । कभी कभी | मालूम होतो है। बड़ी धमनी (Aorta)के ऊपर विशेषतः हतपिण्डकी भी परिवृद्धि होती है। दक्षिण पशुकाके निकट कान लगानेसे पहला शब्द रोगके प्रवेश करते ही शोत और कम्प होने लगता | अस्पष्ट वा द्विगुणित तथा दूसरा शब्द उच्च और धातव है। पहले मस्तक और सर्वाङ्गमें वेदना मालूम होती मालूम होता है। तथा वार वार उल्टी आती है। स्थानविशेषमें शोथ | ___ यह रोग अति शीघ्र आरोग्य होता है कभी कभी और मूत्रक्षयविकार उपस्थित होता है। रोगके जड़ | वहुत दिन तक रह जाता है । रोग अच्छे हो जाने के पकड़नेसे रक्ताम्वुनावी (Serous ) कोटर और कौपिक पाद भी मूत्रमें बहुत दिनों तक एलबुमेन विद्यमान रहता विधानमें रक्तका जलभाग ( Serum ) सञ्चित हो समूचे है। जिस कारण यह पीड़ा होती है, रोगके विशेष शरोरम शोथ उत्पन्न करता है। मुखमण्डल रक्तशून्य, | विशेष लक्षण और मूत्रका स्वभाव देख कर यदि चिकि- स्फीत और मैंदेके जैसा दिखाई देता है। गात्रचर्म त्सा की जाय तो बहुत जल्द वह आरोग्य हो जाता है। शुष्क और सामान्य ज्वरका लक्षण रहता है। पांच किन्तु हठात् युरिमियाके लक्षणके साथ दिखाई देनेसे सात घटेके भीतर समूचा शरीर सूख जाता है । वह उसका निर्णय करना कठिन हो जाता है। सूजन इतनी बढ़ जाती है, कि रोगी पहचानमें नहीं आता, यह रोग कठिन होने पर भी बहुतसे रोगी इसके रोग आरोग्य होने पर ऊरदेशमें छिन्न छिन्न शुभ्र रेखा| पंजेसे छुट गये हैं। मूत्रमें बहुत दिन तक पड़ जाती है। समूचे शरीरमें शोथके परिचायकवरूप | पलवुमेनका रहना एक अशुभ लक्षण समझा जाता है। वक्षरुदक ( IIydrothorax ), फुसफुस और ग्लाटिश मूत्रसे एलबुमेन जव तक अच्छी तरह अदृश्य नहीं हो शोथ (CEdemn of Jungs & glottis) उत्पन्न होता है। जाता तब तक रोगको आरोग्य हुआ नहीं कह सकते। इसके साथ साथ सिरसविधानका भी प्रादुर्भाव देखा | रोगकी शेषावस्थामें युरिमिया, एडिमा आध जाता है। उपसर्गखरूप अन्तावरण-प्रदाह, वक्षान्तवेष्टोध, ग्लारिस वा लंस, प्लुरा वा पेरिकार्डियमके मध्य सिरम ह पौध (pericarditis ), हृदन्तरवेष्टौष, वायुनाली सञ्चय, इरिसिप्लस, गाङ्गिन आदि उपसर्ग अशुभ है। रोगीको वढ़िया और गरम घरमें रखना चाहिये। प्रदाह, फुस्फुस-प्रदाह आदि पोड़ायें भी आक्रमण कर देती हैं। इन सव उपसर्गों में प्यास और ज्वरको वृद्धि | जिससे उसके बदनमें ठंढ न लगने पावे, इस पर विशेष होती है तथा नाड़ी द्रुत और पूर्ण होती देखी जाती है । ध्यान रहे कभी कभी कमरसे रक्त निकाल देनेसे भारी रोगीके क्रमशः दुलता, क्षुधामान्य, मलवद्धता और लाभ पहुंचता है। परन्तु दुर्बल रोगीका रक्त निकालना