पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२१८

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मूलविज्ञान विष ) आदि सेवन तथा युरिटरका चाप और अब । मूतस्रावके ह्रासके कारण उत्पन्न होती है । इसमें रुद्धता । यह मूत्रयन्त्रके वस्तिकोटर झिल्ली-प्रदाह नाम- सर्वाङ्गमें शोथ, दुर्वलता और रक्ताल्पता ( Anaemia) से भी प्रसिद्ध है। प्रवल और प्राचीनके भेदसे यह दो उत्पन्न होती है। साण्डशुक्ल मूत्ररोगको परिपुष्टिसे इस प्रकारका है। प्रवल प्रकारमें मूत्रयन्तके वस्तिकोटरकी रोगका विकाश निर्णय कर Dr. Richard Bright ने श्लैष्मिक झिल्लो आरक्तिम, रक्तस्रावचिह्नयुक्त और कोमल पहले इसका आनुपूर्षिक इतिवृत्त सङ्कलन किया था, इस होती है। उसके भीतर निःसृत वहिस्त्वक ( Epithe- कारण लोग इसका Pright's Disease नाम रखा है। lial ) कोष पीपमय म्युकससे आच्छन्न रहता है। इसका दूसरा नाम Acute Disquamative Nephritis प्राचीन प्रकारमें श्लैष्मिक झिल्ली पांशुवर्ण वा श्लेटके । वा rubal Nephritis है। रंगकी तरह हो जाती है। वीच वीचमें स्फीतशिरा दिखाई! शिशुकाल, गानचर्मका अपरिष्कार, अमिताचार, देती है, इसमें प्रायः पीप रहती है। अवरुद्धता दी। सादा शैत्यसंलग्न स्थानमें वास, इत्यादि कारण ; कालव्यापी होनेसे पीपके साध एमोनियाका लवण, आरक्त ज्वर ( Searket terer )के बाद हाम, वसन्त, युरिक एसिड और फास्फेटस संयुक्त होता है तथा| त्वक्च्छादन ( Diphtherin ) प्रवल वातरोग ( acute उससे मूत्रसे दुर्गन्ध आती है। झिल्लीदाहज वृषककोष rheumatism), महक ज्वर (Typhus terer), मले- रोगमें मूत्रयन्त्र कुछ बढ़ता जाता है। उस समय उसका । रिया ज्वर और विसूचिका आदि रोगके वाद; उत्तप्त कोष ( Capsule ) आसानीसे छिन्न हो सकता है। शरीरमें ठंढ लगानेले, गर्भावस्थामें, अग्नि द्वारा शरीर इसमें बार बार मूत्रत्याग होता है। उसके साथ साथ , दग्ध होनेसे अथवा शरीर कई जगह सोराइसिस वा फरिदेशमें वेदना होती तथा मूत्रमें म्युकस, रक्त और डार्मेटाइटिस चर्मरोग उत्पन्न होनेसे क्रियावरोधजनित परोपका सञ्चार होते देखा जाता है। इस समय ज्वर भी दैहिक अनिष्टकर पदार्थ मूत्रयन्त्र हो कर निकलते हैं आक्रमण कर देता है। रोग पुराना होनेसे क्षयज्वर तथा उससे मूत्रयन्त्रकी सूक्ष्म नालियोंकी श्लैष्मिक झिल्ली- ( Hectic fever ) का प्रकोप देखा जाता है। दुर्बलताके में प्रवल दाह आदि रोगोंकी उत्पत्ति होती है। कारण ही आखिर मृत्यु होती है । मूत्रवाहप्रणाली प्रदाहके कारण नया नया कोप उत्पन्न होता है गथ्य कोई मूत्राश्म रहनेसे उसके निकलने के बाद मूत्रके और उसका भग्न एपिथेलियमके साथ उक्त नालियोंमें साथ पीप निकलती है। अधिक मूत्र और पोप सञ्चित , सञ्चित हो कर भूनको रोकता है। इस प्रकार मूत्र- होनेसे कटिदेशमे एक कोमल अर्बुदका अनुभव । यन्त्र और चको क्रिया रुक जानेसे युरिया आदि अप- होता है। | कृष्ट पदार्था रक्त में मिल कर रक्तको तरल बनाता है। शरीरमें अत्यन्त वेदना रहने पर अफोम और मफिया-! पोछे वह कौपिकविधान और रक्ताम्बु-स्रावी ( Serous.) का सेवन करना उचित है। मफिया इजेक्सन देनेसे । कोटरमै सञ्चित हो कर शोथ उत्पन्न करता है। . भो वहुत उपकार होता है। उढे जल और लघुपथ्यका इस रोगमें दोनों मूत्रयन्त वड़े और भारो तथा चिकने सेवन करना चाहिये। | और अरक्तिम होते हैं : काटनेसे वह अंश कालापन पेरिनिफ्राइटिस ( Perinephritis) रोगमे वृक्कके लिये लाला दिखाई देता है। वीच वीचमें सामान्य रक्त चारों ओरकी कौषिक प्रणालीमें जलन देती है। आघात चिह्न भी रहता है। वाह्य अंश (Cortical) पाटलवर्ण वा शैत्यतासंलग्न ही इसका कारण है। वेदना अधिक सा दिखाई देता है तथा पिरामिडिकल अंश रक्तसे भरा नहीं होने पर भी करिप्रदेश ( Lumber region) स्फीत होता है। कोष (.Capsule ) आसानीसे काटा जा होता है। कभी कभी इसमें स्फोटक उत्पन्न होते देखा | सकता है। सान्तरवृषककोप ·( Interstitial Neph. गया है। ritis) रोगमें मध्यवती कौपिक विधान शुभ्र तथा नाना प्रवल मूत्राघात व्याधि (Acute Bright's disease)| प्रकारके कोप और चवींके कणोंसे युक्त देखा जाता है।