पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२१४

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मूविज्ञान २११ पीड़ा , मृगी, संन्यासरोग और धनुष्टङ्कारादि स्नायु- साधारण लक्षणके सिवा इस रोगमें मूत्रयन्त्र और मण्डलकी व्याधि ; यकृत् और अन्यान्य यन्त्रके आघात पाकयन्त्र सम्बन्धीय अनेक विकार देखने में आते हैं। तथा पाललिक ( Pancreas) पीड़ा अथवा उसके | उन सब विकारोंको अच्छी तरह देख सुन कर प्रवीण सम्पूर्ण ध्वंस आदि कारणोंसे शर्कराफा परिमाण बढ़ चिकित्सक रोगनिर्णय और उसकी चिकित्साकी जाता है। डा० वोनार्डने स्थिर किया है, कि पर्थ कोटर | सुव्यवस्था करें। नीचे सिलसिलेवार लक्षणादिका ( Tentricle ) अथवा स्नैहिक स्नायुओं (Sympathe संक्षिप्त परिचय दिया जाता है- tic nerves )-को उत्तेजनासे इस रोगकी उत्पत्ति ____ रोगी देखनेमें अत्यन्त कृश और दुर्वल, मुख- होती है। जो कुछ हो; स्नायुमण्डलका क्रियावलक्षण्य मण्डल चिन्तायुक्त और मलिन, चर्म शुष्क, पेशियाँ ही जो इस रोगोत्पत्तिका मूल कारण है. इसमें किसोका शिथिल और कोमल, सर्वाङ्गमें वेदना, कभी कभी मतभेद नहीं देखा जाता। शीतवोध, दोनों पांव स्फोत और शाथयुक्त, पुरुषत्व- __गावमें शैत्यसंलग्न, उत्तप्त शरीरमें शीतल जलपान, ! का ह्रास, आलस्य, कर्कश खभाव और मानसिक शक्ति- अधिक शर्करा वा टायुक्त आहार्य भोजन, अतिरिक्त | के हास आदि लक्षण वर्तमान रहते हैं। रक्त तथा सुरापान, मानसिक परिश्रम यो विषय कार्यमें अधिक शरीरके भन्यान्य निस्रावमें शर्करा पाई जाती है। उत्ताप मनोनिवेश, अत्यन्त मनाकष्ट या शोक, मेरुदण्ड वा स्वाभावि से कुछ कम होता है। रोगीके ज्वरो होनेसे मस्तकके ऊपर आघात, स्नैहिक स्नायुमें किसी प्रकारका | उपयुक्त उत्ताप नहीं दिखाई देता । दृष्टिशक्किमें वैलक्षण्य परिवर्तन, सस्फोटक ज्वर और गेठिया वात आदि रोग और स्नायुशूल होता है। फलकास्थित (Patella)-की इसके उद्दीपक कारण हैं। कभी कभी यह वंशपरम्परासे प्रतिक्रिया शिथिल पड़ जाती है। रोग कठिन होनेसे चला आता है । २५पे ६५ तक यह रोग होनेकी सम्भावना मस्तिष्क और फेफड़े में पीड़ा होती तथा अन्तमें अत्यन्त है। निश्चेष्ट नगरवासी और विलासा धनी व्यक्ति दुर्वलता, उदरामय निद्रावेश, आक्षेप और अचैतन्यादि साधारणतः इस रोगसे आक्रान्त हुभा करते हैं। भारत | गुरुतर लक्षण दिखाई देते है। वर्ष, सिंहलद्वीप और इटाली देशमें हो इस रोगकी प्रव शरीके मध्य शर्कराका परिमाण अधिक रहनेसे लता देखो जाती है। यहूदियों के मध्य वहुमूत्र रोगीकी. एसिटोन ( Acetone ) नामक पदार्थ उत्पन्न होता है संख्या ही अधिक है। और इससे एसिटोनिमिया ( Acetonoemia ) अर्थात् इस रोगमें पृष्ठांशस्थित मजाके ऊपरका वड़ा अंश अचैतन्य और विकारका लक्षण उपस्थित हो कर रोगी- lledulla oblongata) और पन्सभेरोलाईकी निकटस्थ | को मार डालता है। अधिक शकरा अथवा चवीं मिले धमनियां स्फीत होतो तथा स्नायुविधान में अप- | हए रक्त या जमावट चींके मस्तिष्कमें सञ्चालित होनेसे कुष्टता और क्षय देखा जाता है । कभी कभी अचैतन्य और भाक्षेपादि होनेको सम्भावना है। अचैतन्य मेडुला आव लङ्गाटा, पन्सभरालाइ आर स्नाहक स्नायुक होनेसे पहले उदरके ऊर्ध्वदेशमें वेदना, अत्यन्त कोष्ठ- ऊपर अर्बुद (बतौरी) देखा जाता है किन्तु उसके | वद्धता, दम फूलना, प्रलाप और निजार्क(Kneejerk) का ऊपर निर्भर करके यथार्थ रोगका निर्णय नहीं किया ह्रास आदि उपद्रव होते हैं। जा सकता । अतएव इसमें रेगिनिर्देशक कोई भी मूत्रयन्त्रसे बार वार अधिक मात्रामें मूत्र निकलता परिवर्तन संघटित नहीं होता। अन्यान्य परिवर्तनके है। वह मूत कुछ उत्तेजक होता, इस कारण मूत्रमार्गमें • मध्य मूत्रयन्त्रका प्रदाह और फेफड़े में यक्ष्मारोगका चिह्न विद्यमान रहता है। हृपिण्ड छोटा, पाललिका जलन देती है। पुरुष वा स्त्रीको वाह्य जननेन्द्रियमें वड़ी अथवा छोटी, पाकाशय फैला हुआ तथा उसकी उत्तेजना और कटिदेशमें वेदना होती है। २४ घटेके श्लैष्मिक झिल्ली स्थूल होती है। त्वको क्षत और मध्य मनुष्यका साभाविक पेशाव २ से ३ पाइंट होता चर्मरोग आदि दिखाई देते हैं। । है, पर इस पीड़ामें साधारणतः उतने समयमें ८ से ३०.