पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२००

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६७ मूवंकृच्छ । चिकित्सा। गोखरूके काढ़े के साथ खानेसे भी यह रोग अति शीघ्र वातज मूत्रकृच्छ में अभ्यङ्ग, स्नेह और निरूहवस्ति- जाता रहता है। का प्रयोग तथा स्वेद, प्रलेप, उत्तरवस्ति, परिषेक और | | समभावमें कुपित वैदोपिक मूत्रकृच्छ रोगमें उक्त शालपानि आदि पञ्चमु व क्वाथका प्रयोग करना होगा। वातजादि दोपज मूत्रकृच्छोक्त क्रिया एक साथ करनी गुलञ्च, सोंठ, आंवला, असगन्ध और गोखरू, इनका | होगी। किन्तु पहले वायुका प्रशमन कर, पीछे कफ- क्वाथ पोनेसे भी वेदनायुक्त वातिक मूत्रकृच्छ रोग पित्तका प्रशमन करना उचित है। यदि त्रिदोषके मध्य अति शीघ्र दूर होता है। कफका प्रकोप अधिक हो, तो पहले वमन, पित्तका प्रकोप अधिक होनेसे विरेचन तथा वायुका प्रकोप अधिक होने- तिल तैल, वराह और भालूको चवीं तथा गायका से पहले वस्तिक्रिया करनी होगी। वृहती, कण्टकारी, घी कुल मिला कर 58 सेर, चूर्ण के लिये रक्त पुनर्नवा, आकनादि, मुलेठी और इन्द्रजौ इसका क्वाथ पोनेसे भेरेण्डाका मूल; शतमूली, रक्त चन्दन, श्वेत पुनर्नवा, आमदोषका पाक तथा त्रिदोषज मूत्रकृच्छ नष्ट होता है। विजवद, पाषाणभेदी और सैन्धव, सब मिला कर एक कुछ गरम दूधके साथ ईखका गुड़ मिला कर इच्छानु- सेर । वाथके लिये दशमूल, कुलधी और जौ कुल साढ़े रूप पान करनेसे सब प्रकारके मूत्रकृच्छ अति शोघ्र जाते वारह सेर, जल १॥४ सेर, शेप १६ सेर। पीछे यथानियम रहते हैं। पाक कर मावानुसार सेवन करनेसे शूलसंयुक्त मूत्र- अभिघातज मूत्रकृच्छमें वातज मूत्रकृच्छ की तरह कृच्छ नष्ट होता है। चिकित्सा करे । मद्य वा चीनी मिले हुए धो वा अर्धश पैतिक मूत्रकृच्छ में शीतल परिषेक, शीतल जलगे | चीनीके साथ दूध पीनेसे अभिघातज मूत्रकृच्छ नष्ट अवगाहन, शीतल प्रलेप, प्रीष्मचर्याका नियम, वस्ति होता है। आँवलेके रस अथवा ईखके रसमें मधु मिला किया और दधि आदि दुग्धविकारका सेवन करे । दास, कर पीनेसे सरक्त मूत्रकृच्छ प्रशमित होता है। भूमिकुष्माण्ड, ईखका रस और घृत इन सवका पैत्तिक । शुक्रज मूत्रकृच्छ में मधुसंयुक्त शिलाजतु चाटे। ईला. मूत्रकृच्छ में प्रयोग करे। कुश, काश, शर, दर्भ और ईस | यची, हींग और घी मिला हुआ दूध पीनेसे मूत्रदोष दर - इनके मूलका क्वाथ बना कर पीनेसे पैत्तिक मूत्रकृच्छ । होता है। दूर होता और मूत्राशय साफ रहता है । शतमूली, काश, | | पुरीषजन्य मूत्रकृच्छ मे स्वेदप्रयोग, फलवर्ति वा कुश, कण्टकारी, भूमिकुष्माण्ड और शालिधान्यका मूल ! विरेचक द्रष्यको चूर्ण कर नलिका द्वारा गुह्यमें फुत्कार तथा इक्षमूल, इनका क्वाथ जव शीतल हो जाय, तब मधु दे। अभ्ग्रङ्ग और वस्तिक्रिया भी इस रोगमै उपकारी और चीनी डाल कर पोनेसे भी पित्तज मूत्रकृच्छ नष्ट | है। गोखरूके रसको यवक्षारके साथ मिला कर पीनेसे होता है। लिकण्टकायत भो इस रोगमें हितकर है। पुरीषज मूत्रकृच्छ बहुत जल्द आराम होता है। लैष्मिक मूत्रकृच्छमें क्षारप्रयोग, तीक्ष्ण और उष्ण सप्तच्छद, अमलतास,-केतकी मूल, इलायची, नीम, औषध, अम्ल और पानीय, खद, यवकृत अन्न, वमन, | करञ्ज, कूटज और गुलश्च इन सबका सिद्ध जल द्वारा यवागू निसहवस्ति तथा तक भादि लाभजनक है। छोटी पाक करके मधुके.साथ पान करे । अथवा कडीके बीजको इलायचीको चूर्ण कर गोली बनावे, पोछे उसे मूत्र, सुरा अच्छी तरह पोस कर कांजी और सैन्धवलवणके साथ वा कदलीवृक्षके रसके साथ पान करनेसे भी श्लैष्मिक २ तोला करके प्रतिदिन सेवन करे । गोखरू, अमलतास, मूत्रकृच्छ प्रशमित होता है। तिन्दूकवोजको म8, काश, दुरालभा, पापाणभेदी और हरीतकी इनके काढ़े में अथवा प्रवाल चूर्णको चावलके जलके साथ मधु डाल कर पान करनेसे भी दुस्साध्य मूत्रकृच्छ अति 'पीनेसे कफज मूत्रकृच्छ शान्त होता है। त्रिकटु शीघ्र आरोग्यम होता है। फण्टकारीके आध सेर रसमें त्रिफला, माथा, गुग्गुल और मधु इनकी गोलो बना कर | मधु डाल कर पीनेसे विदोष नष्ट होता है। तिल, धो Vol, xlll 50