पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/१९५

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१६२ मूढगर्भ-मूढ़ात्मा होनेसे अक्षिकुट या गएडदेशको पकड़ कर खोचना । चाहिये, कि वे उपद्रव जिस दोषसे हुए है, होगा। स्कन्धदेशसे यदि अपत्यपथ बंद रहे, तो जिस पहले उसीको चिकित्सा करें । देहके अच्छी तरह संशो- अंश द्वारा बंद हुआ है, उस अंशमें संलग्न वाहु-' धित होनेसे पहले थोड़ा थोड़ा करके स्निग्ध दम्य को काट डाले । गर्भस्थ वालकका उदर वायु द्वारा पूर्ण ' खिलावे और क्रोधहीन हो कर प्रतिदिन स्वेद और रहनेसे उसे फाड़ कर पहले सभी आंतोंको बाहर अभ्यङ्गका प्रयोग करे। वायुशान्तिकर औषधके साथ निकाले। इससे गर्भस्थ शरीर शिथिल हो जाता और दूधको पाक कर दश दिन तक सेवन करना होगा। पोछे वहुत जल्द बाहर निकाला जा सकता है। जांघले यदि , मांसरस भो उसी प्रकारसे सेवन करना उचित है। अपत्यपथ बन्द रहे, तो पहले जांघकी हड्डियोंको कार। अनन्तर इसो नियमसे चार मास सेवन करनेसे सभी कर बाहर निकाले। गर्भका जो जो अङ्ग अपत्यपथको , दोष दूर हो जायंगे और वलका सञ्चार होगा । अव रोकता है, पहले उसी अङ्गको काट कर गर्भको निकाले ओपधकी कोई जरूरत नहीं होगी। इस अवस्थामें और गर्भिणीकी रक्षा करे। वायुके प्रकोपवणतः गर्भ. योनिदेशमें सन्तर्पणार्थ, अभ्यङ्ग, वस्तिकार्य और भोजन- .को गति विविध प्रकारकी होती है। महामति चैद्यको मे वायुशान्तिकर बलातैलका प्रयोग विशेष हितकर है। उचित है, कि वे इस अवस्थामें बड़ी सावधानोसे वलातैलकी प्रस्तुत प्रणाली-तिलतैल, वलामूल, दशमूली चिकित्सा करें। मृतगर्भको बाहर निकालने में जरा भी यवकोल और कुलथी हरएकका क्वाथ तेलसे आठ गुना विलम्ब न करे, नहीं तो श्वासके रुक जानेसे गर्मिणीका और उसले भी आठ गुना दूध, सवको एक साथ प्राण निकल जानेको सम्भावना है। इस प्रकार चीरफाड़ पाक करे। जब पाक सिद्ध हो जाय, तव मधुरगण, करनेके लिये मण्डलान नामक शस्त्रका व्यवहार करना सैन्धव, अगुरु, सर्जरस, सरल काट, देवदार, मनिष्ठा, चाहिये । तीक्ष्णधार वृद्धिपत नामक शस्त्रका व्यवहार' चन्दन, कुष्ठ, इलायची, पोतकाष्ठ, जटामांसी, शैलज, करनेसे गर्भिणीको आघात लगनेका डर है । गर्भ में कुछ तगरपादुका और पुनर्णवा, इनका चूर्ण उसमें डाल कर और बनेड़ा होनेसे पूर्ववत् गर्भपात करे अथवा भिणी- मट्टोंके वरतनमें रखे और मुह बंद कर दे । उपयुक्त के दोनों पार्श्वको परिपोड़ित कर हाथसे बाहर निकाले। मात्रामें स्त्रियोंके सूतिका रोगमें यह तेल वहुत उपकारो गर्भपात करने में अपत्यपथको तैलाक्त करना उचित है। है। इससे आक्षेपक आदि वात-व्याधि दूर होती, धातु ... इस प्रकार गर्भके निकालने पर प्रसूतिके शरीरमें पुष्ट और स्थिरयौवन होता है । गर्म जलका सेक दे और पीछे योनिदेशमें स्नेहका प्रयोग __ (सुश्रुत मूढगर्भ चिकित्साधि.) करे। इससे योनिशूल निवृत्त हो कर योनिदेश कोमल । मूढचेतन (सं०नि०) १ निर्वोध, वेवकूफ । २ व्याकुल-चित्त होता है। अनन्तर दोप और वेदना दूर करनेके लिये ३ सरल। पोपल, पिपरामूल, सोंठ, इलायची, हींग, भागीं, यमानो मूढ़चेतस् (सं०नि० ) मूढचेतन, निबोध । • वच, मतिविषा, रास्ना और चव्य इन सव द्रव्योंको मूढ़ता (सं० स्त्री० ) मूढस्य भावः तल-टाप् । मूढत्व, अच्छो तरह पोस कर घोके साथ सेवन करे। विना बेवकूफो। घोकं भी इसका सेवन किया जा सकता है। पोछे । मूढधो (सं० वि०) मूढा धीयश्च । मन्दबुद्धि, जड़। शाफ वृक्षको छाल, अतिविपा, ग्वालपाठा, फटुकी और मूढ़प्रभु (सं० त्रि०) मूढश्रेष्ठ, निहायत वेवकूफ । गनपोपलको पूर्ववत् पान करावे। अनन्तर तीन, पांच मूढमति (सं० स्त्री० ) मूढा मतिर्यस्य । मन्दबुद्धि, मूर्ख। वा सात दिन तक फिरसे स्नेहपान करावे । अथवा मूढ़रथ (सं० पु० ) ऋषिभेद। रात्रिकालमें आसव वा अरिए सेवन भी हितकर है। मूढ़वात (सं० पु०) किसी कोशमें रुको या बंधी हुई शिरीष या अर्जुन वृक्षके जलसे आचमन करना भी उचित वायु । है। दूसरे दूसरे जो सब उपद्रव होते हैं, चिकित्सकको । मूढ़ात्मा (सं० लि०) निर्वोध, मूर्ख। .