पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/१८७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१९४ जमीन कुदालीसे कोड़ी जाती है। कितने तो दो | जैसे पंज-मुसकिल, कुशा, मालम-इ-अब्बास, आलम-इ. तीन दिन बाद वहां गड़ा करते हैं। आशुरखाने के सामने | कासिम, आलम-इ-आला अकवर इत्यादि। ही चौकोन गड ढा बनाया जाता है । इसीका नाम आलम अक्सर तावे, पीतल और लोहेके बने होते 'आलोया' है। प्रतिवर्ष एक ही जगह पर 'आलोया' हैं। कहीं कहीं उसमें सोना, चांदी और मणि माणिक्य करना उचित है । शामको उत्सबके दिन तक यहां रोशनी भी जड़ा रहता है। सोनारके घर आलम बनाये जाने पर बाली जाती है और उस घेरेके बाहर बालवृद्धयुवा सभी। बड़ो धूमधामसे बाजेगाजेके साथ उसे भाशुरखाना लाया एकत्र हो कर लाठी अथवा तलवारका खेल करते हैं। जाता है। प्रतिपद्, चतुर्थी वा पञ्चमीके दिन वह गई में उस समय 'या अली या अली, शाह हसन, शाह हसन, ला कर रखा जाता है। कहीं कहीं उसकी बगल में शाह हुसेन, शाह हुसेन, दुल्हा, हाय दोस्त, हाय दोस्त, कदमर सूलका पदचिह्न भी अङ्कित रहता है । आलम रहियो रहियो' सभी इसी प्रकार वार वार चिल्लाते हैं।। स्थापन कालमें धूप धूना आदि जलाया जाता है तथा इस समय कोई तो जलते मशालके ऊपर कूदता है, कोई हसन हुसेनके नामसे शरवतके ऊपर फतिहा दिया जाता वार वार मागका गोला घुमाता है। है। वह शरवत पीछे धनी दोन सभीको बांटा जाता आलोयाकी बगल में रातके समय तरह तरहके खेल है। इस प्रकार प्रतिदिन शामको फतिहा और कुरान खेलनेकी ही रीति है, दिनको उतना नहीं होता। स्त्रियां पढ़ा जाता तथा फूलसे पंजा सजाया जाता है । उस अशुरखान को छोड़ कर केवल आलोया वनाती हैं तथा' जगह नाना श्रेणोके फकीर उपस्थित रहते हैं, दिनको मरसिया वा अलीके घंशधरोकी अन्त्येष्टिके उपलक्षमें। वे केवल कुरान पढ़ते हैं । किन्तु रात भर जग कर स्तुति गान करती हैं। वे लोग भी 'शाह जवान, शाह रोजात्-उस-सोहादा अर्थात् धर्म के लिये आत्मोत्सर्ग जवान, तोनों तीनो, लुहसेन लुहसेन, डूबा डूवा, गिरा गिरा' करनेवालोंकी जीवनी पढ़ी जाती और मरसियाका गान मरा मरा, पड़ा पड़ा,' इस प्रकार कहती हुई छाती होता है। जो धनी मुसलमान हैं, वे शुबह शाम दोनों पीटती है। आखिर 'या अली' एक वार कह कर थोड़ा वक्त विना मांसकी खिचड़ो और शरवत तय्यार करते हैं विश्राम लेती और फिर मालम रहने पर 'मरसिया' गान तथा इमाम हुसेनके नामसे फतिहा दे कर उसको खाते करती हैं। कोई कोई स्त्री काठकी सिला वा मट्टोके । हैं और दीन दुखियोंको भी देते हैं। . कोके ऊपर वत्ती चाल कर उसीको वगल शोक प्रकट। किसी किसीके आशुरखानेमें हरएक रातको ख्यांनी करतो है। १म, ३य और ४थ खनवा तिथिमें आशुर- (शोकसङ्गीत ) होती है। इसके लिये कुछ मधुरकण्ठ- खाना गलीचे, भाड़, चंदवा, लण्ठन आदि तरह तरहके वाले वालक सिखाये जाते हैं। शोकसङ्गीत सुनने के असवावसे सजाया जाता है। लिये बंधुशंधव, फकोर और अनेक दर्शक उपस्थित इस देशमें आलम वा ध्वजा सादा, पंजा, इमाम, | होते हैं। जादा, पीरान, साहिवान आदि नामोंसे भी मशहूर है। .. सप्तमोके दिन आशुरखानेसे तरह तरहका आलम यह जयपताकाको जैसी होती है। साधारणतः दो निकाला जाता है और एक घुड़सवार उसे ले कर घूमता प्रकारका आलम देखा जाता है, महो और मुरातिव। है। एक आलम ले जाते समय यदि दूसरा आलम राह- मही में मछलीका चिन्ह रहता है ओर मुरातिव जरी में मिल जाय, तो आलिङ्गन के तौर पर एक दूसरेसे स्पर्श लाल वा सफेद कपड़े से सजाया जाता है। कराया जाता है। आलम निकालनेके समय मरसिया' हुसेनकी पताकाको तरह सभी जगह आलमका गान गाया जाता और धूप धूना जलाया जाता है। आलम- व्यवहार होता है। किन्तु भारतवषमें विभिन्न पीर, साधु के लौटने पर दो तीन प्याला शरवत तैयार कर फतिहा वा धर्मके लिये जिन्होंने प्राणको न्योछावर कर दिया है। दिया जाता है । सप्तमीके दिन पूर्वाह्न और अपराह्नमें शहरमें घूमनेके लिये निजा (बल्लम) निकाला जाता है। • उनके नाममें भो आलम शब्दका प्रयोग देखा जाता है।