पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५८८

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जनधर्म या प्रारंभ उद्योग वमजीवोंको (होन्द्रियमे पञ्चेन्द्रिय ' अर्थे नहीं है, कि मुनिगण प्रसादो होते हैं । किन्तु इम मंज्ञो तक) इगदा करके-"मैं.इमे मार डालूं' इम दुरभि का यह अर्थ है कि 'जोवाक जो क्रोध मान माया लोभ ____प्रायसे कभी नहीं मारता। इस प्रकारका घात बहुत पाप एवं' याहारजमित प्रमाद, मो क्रममे पांच चौथ, ____प्रद है, किसो जोवको जान बूझ कर मारना महान् अनर्थ | तोमर आदि नोचेके गुणस्थानों में अधिक अधिक पाया है। पांचवें गुणस्थान में रहनेवाला जीव इस प्रकारको जाता है, वहो घटी घटते छठे गुग्गस्थान में परयन्त मन्द 'हिमा नहीं करता है। हा, ग्टहस्यायममें होनेवाले । रूपमे पाया जाता है, कारण इमो गुणस्थानमें मुनियों का 'यारंभ उद्योगजनित वस-हिंसा एवं स्थावा-हिमाम वह ममम्त क्रियाकाण्ह ( माहारार्थ गमन, देशांतर पर्यटन, वचभो नहीं सकता ।' परस्त्रोका त्याग कर देना और | स्वाध्याय ) इमी छठे गुणम्यानमें होता है। हममे मात्र अपनी स्त्री सन्तोष रखना, इसका नाम एकदेश धागे मातवें गुणस्थानमें कोई क्रिया नहीं है. केवन ब्रह्मचर्य है। बहुपरिग्रह-जनित हिसामे बचनेके ध्यानावस्या एवं विशुह परिणामको मन्ततिमाव है। लिये व्यर्थ को वस्तु योको छोड़ देता है। जो परिग्रह ऐसा इसलिये मात गुणम्यानका नाम अप्रमत्त परिणाम है। है कि जिसके विना कार्य ही नहीं चलता, उमे हों दम गुणस्थानमें टपा, मादि कोई भी विचार भाव नहीं रखता है। इमो प्रकार जितने भो यावक के बारह व्रत | रहता; केवन्न ध्यान एवं प्रात्म-चिन्तनरूप तत्व विचार कहे गये हैं, उन सबको ययाति न्य न वा पूर्ण रूपसे | रहता है। मात गुणस्थानमे लेकर चौदहवें गुणस्थान पांच गुणस्थानवाला जोव धारण करता है। क्षुल्लक, तकका समय मो अन्तर्मुहर्तमाव है । एक प्रकारका भाव एक अन्तर्मूहत हो रहता है। फिर एक तत्त्वने ऐलकपदोंक यनुकूल पाचरण भोयहीं पर धारण करता है। परन्तु प्रत्याध्यानापरण नामक कपायका उदय इट कर दूसरे तत्व पर चला जाता है, क्योकि उत्या ट होनिमें महावीके धारण करनमें ममय नहीं होता। ध्यान एक तत्त्व में पधिक पधिक एक मुहूर्त तक हो वास्तवमें जो शुभकार्य के लिये पुरुषार्थ करने में भो रह सकता है, इमीलिए ध्यानपूर्ण गुणस्थानोंका ममय . किमो अपेक्षामे कर्मोदयके अधोम है। कर्माधोन होने एक एक अन्तमुहर्त है । मात गुणस्थानमें मुनि ध्यानमें पर भी यह किमो प्रयधि तक हो उसके पधोनस्य रहता मग्न होकर कमकि क्षय करने अथवा उन्हें अपगम है। पुरुषार्थ को मुख्यता होने पर कर्माके अधीन न रह करने में प्रवृत्त होते है। इस गुग्णस्थानमें ध्यानस्थ कर स्वावलम्बी बन जाता है और उसो स्वायतम्य नसे मुनियों के भावों को उज्ज्वलता इतनो वढ़ जाती है कि काँक विजय करने में ममर्थ हो जाता है। ये उपशमये गो एवं आपकणो पर पारुद हो जाते - जिम ममय जिस जोयका प्रत्याख्यानावरण कपाय हैं ! जिन भावोंमे चारिखमोहनीयकम का उपशम होता भी उपशमित हो जाता है, उस समय वह महानत धना जाय, उमे उपयमयेणो कहते हैं। जिस प्रकार धारण करता है। जहांम महावतं धारण करना प्रारम्भ बरमातके मलिन जन्लमें फिटकरो पादि द्रव्योंके डाल नेमे होता है वहीं में मुनिपदका प्रारम्भ है । यहाँपर जो प्रामा. जल निमन्न हो जाता है पोर धूलि या कोचड़ नीचे बैठ जाती है उमो प्रकार कमी के उपशम होनेमे घामाम 'के भाव होते हैं. वे छठे गुणस्थान के नामगे कहे जाते केवन शुड माव घ्या हो जाते है । यही उपशमको है। विना प्रत्याग्यानावरण कषाय उपगम हुए इस | भांय कहा है। जोव छठा गुपस्यान नहीं होता. एम गुणस्थानमें सपकये गोजिम प्रकार फिटकरी द्वारा स्वच " कैवल सव्वलन कपायका ही सदय रहता है क्योंकि हुए जलको टूमी पाव धीरे धोरे ले लेने से जन मर्वथा 'और मव कपाय महावत होनेम पूर्ण वाधक है। श हो जाता है, फिर किसो निमित्त मिलने पर भी • अपर जितना मुनियों का 'पाहारादि क्रिया काण्ड जैसे फिटकिरी आदि इय्पसे जल में मो मेल नीचे-बैठ लिखा गया है, यह इमी छठे गुणम्यानकी क्रिया है, जाती है उसी प्रकार बाप मामादि मा मात्मा न होने देनेचे 'यहाँ तक उनकी प्रमादावस्या रहती है। मका यह "वपशम कहते है। ....' Vol. Yu. 184