पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५८६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मैनधर्म यद्यपि य ल सूक्ष्म समस्त जीवों की रक्षाका पूर्ण ध्यान । गुणस्यान १४ चौदह होते हैं, यद्यपि जीवोंके, कपाय. समस्त मुनियों के रहता है, जीवों को रक्षाका ध्यान वामना मंद, मदतर पर तीव्र, तीव्रतर उदयसे रखना मुनि मार्ग का प्रथम कर्तव्य है, तथापि 'परिहार | अनन्त परिणाम होते रहते हैं । किन्तु उन मत्रका विवे. विशुविचारित्र'वाले मुनियों का निवास केवलो अथवा | चन अशक्य है, केवल मर्वदर्गी परमात्मा ही उनका शुत केवलोके पादमूनमें अधिकतर होता है-वहों वे | साक्षात् प्रत्यक्ष करते हैं, उन भावोंको (सूत्मताको छोड़ दोक्षा लेते हैं। उसमे पहले तोस वर्ष धरमें ही नित्ति | कर) स्थूलरूपमें १४ कोटियां है। स्थलतासे जोवों के मार्ग का सेवन करते हैं; इमलिये उनके भावों में प्रथमसे ममस्त प्रकारके परिणाम वा भाव इन चौदह कोटियोंमें ही विशेष विशुदि रहती है। विभक्त हो जाते हैं। सूक्ष्ममाम्पराय-चारित्रधारी मुनियों के समस्त कपाय, जो जीव मिष्यात्व सेवन करते हैं, जिनके विचार शान्त एवं नष्ट हो जाती है, केवल संज्वलन-कपायका विपरोत वा संशययुक्त है, अनध्यवसाय रूप हैं, जिनका अन्यतम भेद सूक्ष्मलीभ-कपाय अवशिष्ट उदित रहता है। आचरण धर्म विपरोत है, मुनिपद धारण करके भी जो यहां पर मुनियोंके दशवां गुणस्थान हो जाता है। इसी तृपणा एवं कपाय-वासनासे वामित हैं, पनेक परिग्रह गुणस्थानका चारित 'सममाम्परायचारित्र' कहलाता रखते हैं, म खसे पट्टी बांध लेते हैं, प्रोदने विद्यानिके वस्त रखते हैं, सोने चादीके सिंहासनों पर बैठते है, जिस चारित्रमें कोई भी कपाय अवशिष्ट न रहे, घीमटा रखते हैं, शरीरसे भस्म लगाते हैं, घर घरमे ममस्त कपायें सर्वथा उपगमित या क्षीण हो जाय, उस रोटी मांग कर अपने स्थान पर खाते हैं ये मुनिपदमे चारित्रको 'यथाख्यात चारित्र' कहते हैं। यह चारित्र विरुद्ध पाचरण करते हैं। ये सह क्रियाएं मनि. ग्यारहवें गुणस्थानसे प्रारम्भ होता है। कारण दशवें गुण- धर्म के विपरीत हैं, इसलिये ये भाव एवं क्रियाए स्थान तक तो कपार्योका सद्भाव है, उसमें भागे नहीं। ले मिथ्यात्व गुणस्थान में मानी गई है। वस्तुको एकान्त एमोलिये मनियोंक ११वें गुपस्थानमे परमविशुद्ध वीतराग | रूपसे सर्वथा नित्य पधया मथा पनित्य एव' मर्यथा यथाख्यातचारित हो जाता है। यह चारित परम निर्मल एक वा मर्वथा अनेकरूपमें मानना वीतराग सर्वपके होता है। यही चारित्र प्रयोगकेवली भगवान्के, योगोंकि । भी इच्छा एवं पलतकन्यता मानना, देवताओंके अभावमें परमावाद रूप धारण करता है, वहीं सम्यक्- नामसे जोका वध किया जाना ये समस्त भाव भी चारित्रको पूर्णता है और उसीके उत्तर आपमें प्रारमाका | श्ले मिथ्यात्व-गुणस्थानमें यामिन्न किये गये हैं। यह निर्वाण वा मोन है। इस प्रकार पांचों प्रकारके मनि १ला गुणस्थान (अयवा जोयाँक मिथ्यात्वरूप परिणाम ) उपयुक्त पांच प्रकारका चारिख यथाशक्ति क्रममे धारण | मिथ्यात्व नामक कम के उदयमे होता है, जोकि जीवोंने करते हैं। इस चारित्रके वनमे अनन्त कर्माको निर्जरा हो व कर्तव्य से पूर्व में सश्चित किया है। एव पनन्त गुण विधि बढ़ती जाती है। _ जिस समय अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया-लोभममे उपर्युत कथनमें जैन मुनियों के पाचार, व्रत, उनकी | किमी एक कपायका उदय होता है, उस समय पात्मा चर्या पाटिका वर्णन किया गया है। अब यहां पर | पपने राइ मम्य-भावमे थत हो जाती है। उस संक्षेपमें उनके भावों को विशहता एवं कर्माको निर्जरा ममय जीव जो परिणाम होते हैं, वे मासादन नामक का क्रमविधान जैन-गास्त्रीय दृष्टिये कहा जाता है। २२ गुणस्थानमें शामिल किये गये हैं। हम गुणस्थानके जैन मुनियोंके लेनशास्त्रानुसार छठा गुणस्यान भाव यर्शनक तोत्र होते कि जो जोव उनके वग- माना गया है। गुणस्थान नाम उन परिणामों ( मावों)। इन्न होता है वह जम्म पयंस वा कई जन्म तक टूमी का है जो कर्मो के उदय, उपगम, आय एयजयोप- जीयमे वैर बांध नेता है, मरते समय तक वह उस गममे जीष भिम भिव कप पाये जाते हैं।। पापायनिन घासनाको माथ लेखाता पोरदुगंसियाम