पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५३२

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जैनधर्म ४८१ 'ज्ञान) साथ जाता है, उमे क्षेत्रानुगामी ; जो जीवके पर• के नहीं होता। देशावधिज्ञान गुणप्रत्यय और भाव. भदको गमन करते समय (परलोक पर्यन्त ) साथ ज्ञाता | प्रत्यय दोनों प्रकार होता है। है, उसे भवानुगामी और जो अन्च क्षेत्र एवं अन्य भव, (४) मनःपययज्ञान-जो ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और दोनों में साथ जाता है. उसे उभयानुगामो अवधिनान | भावकी मर्यादा लिये हुये दूमरेके मनमें अवस्थित रूपो कहते हैं। अननुगामी-जो अवधिज्ञान अपने स्वामी पदार्थको म्पट जान लेता है उमे मनःपर्यवज्ञान कहते (सोध) के माय गमन नहीं करता. उमे अननुगामो कहते है। यह दो प्रकारका है-२ ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान और है। इसके भो तीन भेद हैं. १ तेवाननुगामी, २ भवा । २ विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान । ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान-- नमुगामी. और. ३ उभयाननुगामो। इनका अर्थ अनु जो ज्ञान नन-वचनकायको सरलता लिए हुए दूमरेके गामी के भीम उन्टा समझना चाहिये। वर्तमान । मनः स्थित रूपी पदार्थ अर्थात् दृदयगत भावों को ओ मम्यग्दर्शनाटि गणरूप विशुद्ध परिणामों (भावों को जानता है, उसका नाम है ऋजमतिमनः सान। यधिके कारण दिनी टिन बढ़ता ही जाता है, उमे वह जिसको मति ऋचो अर्थात् भरत है, वह ऋजुमति है। मान अवधिनान कहते हैं। होयमान-जो मम्यन्ट । जुमतिमन:पयजानके तीन भेद हैं, १ ऋजुन- भनादि गुणोंको हीनतामे तथा मझग परिणामों | स्कृतार्थ ( सरन्न मन द्वारा किये गये अर्थ का ज्ञापक), (अशुद्ध वा लोशित भावों को हदिमे घटता जाता है, उमे २ ऋजुवाककृतार्थ ज ( मरल वचन हारा किये गये हीयमान अवधिज्ञान करते हैं। प्रयस्थित-जो जितने । अर्थ का जापक ) और ३ ऋजुकाय कृतार्थ ( मरल परिमाणको लिये उत्पन्न हुया है, बराबर उतना ही रहे। काय द्वारा किये गये अघ का सापक)। इमका स्पटी- अर्थात् न घटे और न बढ़े. उसे अवस्थित अवधिन्नान करण इस प्रकार है--किमी मनुष्यने मनमे व्यतारूप कहते हैं। अनवस्थित-अवस्थितमे विपरोत जो घटता। पदार्थको चिन्ता को. धार्मिक वा लौकिक वचनों का चढ़ता है, उसे अनवस्थित पवधिज्ञान कहते हैं। हमने भो भित्र भित्र रूप से उच्चारण किया एवं कायको भो प्रतिपाती और अप्रतिपाती ये दो भेट शामिल करने । अनेक चेटाए को और थोड़े ही दिन बाद वह सत्र इसके पाठ भेट भी होते हैं। भूल गया। किन्तु ऋजुमतिमन:पर्य यज्ञान युक्ता मुनिमे इसके अतिरिक्त जैनशास्त्रों में अवधिमानके और भी कई पूछने पर वे मब वृत्तान्त खुलासा बता देंगे; इसीका नाम प्रकारमे भेद किये हैं। यवा-१ देशायधि, २ परमावधि | ऋजुमतिमनःपर्य यज्ञान है । विपुलमति-मन:पर्य यज्ञान- और ३ सर्वावधि । इनमेंमे देगावधिक उपरोक्त छ वा पाठ जो ज्ञान दूसरके मनमें स्थित मन-वचन-कायके द्वारा भेद है। परमावधि और सर्वावधि केवलज्ञान उत्पन किये गये मरल और कुटिल (क) दोनों प्रकार के रूपो होने पर्यन्त जोवका अनुगामो रहता है। एमके सिवा पदार्थ ( घटयगत भावों वा विचारों) को जानता है, परमावधि और सर्वावधिज्ञानयुत्ता पुरुष (वा मुनि ) पुनः । उसे विपुलमतिमनःपर्य यशान कहते हैं। जिसकी मति जन्मग्रहणा न कर उसी जन्ममें केवलज्ञान पूर्वक मोक्ष | विपुल मर्यात् सरल और कुटिन्न दोनों प्रकारको है यह मारा करता है। मम्तिए भवान्तर या जन्मान्तरके प्रभाव. विपुलमति है । ऋजुमनस्कृतार्थ , जुवाकृतार्य, की अपेक्षासे उक्त दोनों प्रकारके प्रयधितानों को आनन ऋजुकायकृतार्थ, वमनस्कृतार्थ , ( कुटिम्न वा वाक , गामी भी कहा जा मकता है। ये दोनों ज्ञान प्रातिः | मन द्वारा किये गये अर्थ का ज्ञापक ), वनवाक,तायज पाती ही है, क्योंकि केवलज्ञान उत्पन होने तक घटते । (वन वचन द्वारा किये गये अर्थ का जापक ) और वक्र. नहीं। परमावधि वईमानखरूप है, होयमान नहीं। .कायकता के भेदसे विपुनमतिमन:पर्य यज्ञान छ परमावधि और सर्वावधि ये दोनों ज्ञान चरमगरीरो इनके देशावधिज्ञानकी ही योग्यता है अर्थात् गृहस्थ तद्भवमोचगामी संयमी मुनियों के ही होता है, अन्य ) मनु, तिथंच, देव और नारकिर्योत्र अवपिमान देशावधि - तीर्य रादि ग्राहस्थ मनुष्ण, तियेच देव पौर नारवियों- पहलाता है। Vol, VII. 121