पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५३०

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जैनधर्म ४८ “मवजके वताथानुकूल जो 'गणधर प्राचार्य श्रादिके चारों मतिज्ञानके अंतर्गत हैं, पराय नमान और भागम वचन है उनसे होनेवाला बोध भो आगममें परिगणित थतन्जानमें गर्भित हैं। इमोनिये मविज्ञान शुतज्ञान है। जेनाचार्यों के बनाये हुए गास्त्र भो पागम हैं, परोक्ष प्रमाण कहे जाते हैं अवधि मन:पर्यय और कारण कि उनमें भी उन्हों ग्रहन्त देवका परम्परा उप केवल ये तीन जान प्रत्यक्ष हैं, इसलिए उपयुकofचों झो ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष इन दो भे टोमें बटे हुए है एवं . ..जैनसिद्धांत पागमको प्रमाणतामें यह रेत देता है! पाचों हो सम्यग्ज्ञान होनसे प्रमाण है, अब इन मेट कि वह पूर्वापर अविरुद्ध है, उसके कथनमें पागे पोछे प्रमदोंका वण न किया जाना है- 'कहीं भी विरोध नहीं है। विरोध नहीं होने का कारण ! प्रमाण-प्रमाण के माधारणत: दो भेद हैं, १ प्रत्यक्ष भो यह है कि उसका बचन यति और शास्त्र से । और २ परोक्ष । पारमा जिम ज्ञान के द्वारा एन्ट्रिय प्राटि अविरोधी है, कोई भी प्रबल यक्ति एव प्रत्यक्ष परोक्ष ! अन्य पदार्थीको महायताके बिना हो पदार्थ को अन्यन्त प्रमाण उस आगममें बाधित नहीं होने वाधित निर्मल (स्पट) जान ले, उमे प्रयचप्रमाण कहते हैं। न होनेका भी प्रमाण यह है कि जो कुछ भी पदार्थ जो चनु आदि इन्द्रि, नया भारखादिमे पदार्य को एक- व्यवस्था जनशास्त्र बतलाता है-जोव कम सम्बन्ध, देग ( एकाश) निमल जाने, उसे परोक्षप्रमाणा* कहते जीवो के सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावों का विवेचनद्रव्यनिरूपणा, है। प्रत्यक्ष प्रमाण भी माव्यवहारिक और पारमार्टिकके स्याहादनिरूपणा, पुद्गलट्रव्य आदि द्रव्यों का परिणाम, । भेदमे दो प्रकारका है ! जो इन्द्रिय और मनको महाय- आदि मभो विवेचनाए जसो भागममें प्रतिपादित की तामे पदार्थ को एकदेश आने, उसे मांचयहारिकप्रत्यक्ष गई हैं वे युक्तिसे प्रमापसे, एवखानुभावसे उसी प्रकार | और जो बिना किमीको महायताके पदार्थको स्पष्ट जाने, 'पायी जाती हैं । ' इसीलिए जनागम प्रमाण है । नब उमे पारमार्थिकप्रत्यक्ष कहते हैं। पारमार्थिकप्रत्यक्ष के जैनागम प्रमाणता मिद्ध हो जाती है तब जैनागम। दो भेद हैं, एक विकल पारमाथि प्रत्यक्ष और दूमग • कथित ममस्त पदार्थों में भी प्रमायता मिह हो जाती है। मकलपारमार्थिकप्रत्यक्ष। जो रूपो पदार्थों को बिना इस प्रकार परोक्ष प्रमाणके पांच भेद जो अपर निरू | किसो इन्द्रिय की महायता स्पष्ट जान, उभे विकलपार• पण किये गये हैं, उन्ही में उपमान. ऐतिया, पारिशेप्य, मार्थिकप्रत्यक्ष और जो भून भविष्य वर्तमानके रूपो शब्द, प्रतिपत्ति, प्रभाग आदि प्रमाण गर्मित हो जाते एवं प्रमूर्ति क लोकालोकके मम्य र्ण पदार्टीको स्पष्ट . हैं । अपमान प्रमाण जैनियों के यहां प्रत्यभिज्ञानमें गर्मित | जाने, उसे सकलपारमार्थिकप्रन्यन कहते हैं। है। ऐतिय स्मृतिमें गर्मित है।' पारिशय अनुमानमें | प्रमाण पांच है, १ मति, २ गुत. ३ अवधि, मनः गर्मित है, शरद मागम और अनुमान गर्भित है, प्रति पर्यय और केवल । इनसे मतिज्ञान और शुनसानको पत्ति ज्ञानात्मक होनेने प्रमाणमें सतरां अंतर्भूत है। परोक्षप्रमाण, पवविज्ञान और मनः पर्ययज्ञानको विकल. जैनियोंने प्रभाव प्रमाण इसलिये नहीं माना है कि वे पारमार्थिक प्रत्यक्षप्रमाण और केवलञानको मकलगार. शिमी पदार्थ का नाश नहीं मानते, पदार्थ सभी उनकै मार्थिकप्रत्यक्षमाण कहते हैं। मतमे नित्ल हैं, केवल एक पर्याय अवस्थाको छोड़ कर १म मतिज्ञान-जो ज्ञान पांच इन्द्रियों भोर मनको महा- दूसरो अवस्था धारण करते रहते हैं। उनके यहां पूर्व यतामे हो, उसे मतिज्ञान कहते हैं। १ स्मृति, प्रत्यभिज्ञान पर्यायका नाग उत्तर पर्याय स्वरूप है। जैसे घटका | {मंजा). तक (चिन्ता ) थोर अनुमान (अभिनिवोध) नाश कपालस्वरूप एवं लकड़ीका जलना अग्नि तथा | इमोके अन्तर्गत है, जैसा कि ऊपर कहा है। इसके चार भस्मस्वरूप है । इमलिये नसिद्धांतने प्रभावको सनक भेद हैं । १ भवग्रह, २ ईहा, ३ अवाय, ४ धारणा। 'प्रमाण स्वीकार नहीं किया है। . .. इन्द्रिय और पदार्य के योग्य स्थान (वर्तमान स्थानमें) ___ स्मृति, प्रत्यभिधान, तक और स्वार्थानुमान ये सीके एक भागको अनुमान प्रमाण भी कहते हैं।