पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/३५६

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- जिनसेन पाचार्य । ३१५ है जिनका कि स्वामी जिनमेनन उमेख किया है, बल्कि पति ध्र वने वासराजको मोडामावमें पराजित कर दिया उनके पितामह यीवनभ-जिनका दूमरा नाम अमोघवर्ष | और उनके प्रकारको चूर्ण कर तान के साथ साथ भी था। उनके शिष्य थे। क्योंकि राष्ट्रकटवशीय राज | दिगन्तव्यापी यग भो छोन लिया, जिससे उन्हें मारवाडमें गण कई नामो से प्रसिद्ध हुए हैं। उनमें कर्कराज के बाद जा अपने प्राण बचाने पड़े। कर्णराज (शकसं० ७३४) जितने राजा सिंहासनारूढ़ हुए हैं। प्रायः सबको 'वर्ष' ताम्रलेख में लिखा है कि उक्त राष्ट्रकूटय गोय गोविन्दने उपाधि थी। तथा गौड़ेन्द्र पोर वङ्गपति-विजेता गुजरेन्द्रने यमराज- राष्ट्रफूटवंशके नृपतिगण कितना और किम रूपमें | को पराजित कर अपने छोटे भाई इन्द्रराजको मालय में जैनधर्म का समादर करते थे ; यह बात जिनमेमाचार्य | प्रतिष्ठित किया। और गुणभद्राचार्य के इतिहामको देखने मे भी तरह उना सममामयिकलिपिके प्रमाणमे जान पड़ता है माल म हो सकता है। 'विद्रनमाला'के प्रथम भागमें कि शकस ० ७३४ के पहिले मालव-पति वामराजने ममम्त सबसे पहिले इसी विषयको यथोचित पालोचना हुई है। प्राच्य भारत में अपना अधिकार कर लिया था एवं जिन- अत: इस जगह उसका वर्णन करना हम निष्य योजन मेनोत शकस ७०५में ये अवन्तिमे ले कर यङ्ग पर्यन्त समझते हैं। समस्त पूर्व भारत के अधोखर थे। जिनमेनाचार्यन जिन अब हम अपने पालोच्य हरिवंशपुराण के की जिन-1 बोरवराहका उल्लेख किया है, वे कन्नौज भावो गुर्जर मनाचार्य ने विशेष रोतिसे जिम निम प्रचलित इतिवत्तका राजवंश के प्रतिष्ठाता सुप्रमिह गुर्जरपति हो हैं। जिन. फथन किया है, उसीका परिचय देते हैं। पहिले हम मेनके समय पथिम भारतमें उनका अभ्य दय हुअा था, हरिव की रचनासमयसापक झोकीको उहत करते | इसलिये जिनमेनके हरिवंशर्म हम जो चार सम्राटोमा समय लिख पाये हैं कि कम०७०में, (७८३-७८४ अनुसन्धान पाते हैं यह मत्य है। ई०) उत्तर भारत इलायुध दक्षिणमें कृष्णराजका पुत्र मके सिवा उन्होंने हरिवंशक अन्तिम भागम भघि (राष्ट्रकूटय शीय ) योवक्षम, पूर्व में प्रवन्तिपति वत्सराज | राज्ययगक प्रसङ्ग से नोचे लिडे अनुसार कितने ही और पथिममें सौर्यदिशके अधिपति वोर-वराह राज्य करते राजानों का भी परिचय दिया है। थे, अर्थात् ये चार राजा ही इस समय समन भारत- "वोरनियाणकाले च पालकोऽत्राभिपिश्यते । वर्ष राजाधिराज के नामसे प्रसिद्ध थे। अब देखना लोकेऽवंतितो राजा प्रजानां प्रतिगल: चाहिये कि जिनसेनाचार्यका यह कयन कहाँ तक पर्वियानि तदाज्य ततो विजयमुनो। शतं व पंच पंचाशत् क्याणि तदुदीरित वास्तव में उत्तर भारतके इतिहास और प्रभावकारित चत्वारिंशत् पुत्वानो भूमंडलमसंडितं। प्रभृति ने नग्रंथोंके देखनसे मान्न म होता है कि इन्द्रा. निशारत पुष्पमियागो पशिर्षस्वग्निमित्रयोः । युधने चकायुधको राज्यद्य त कर कबीजका सिंहासन शतं रामभराजाना नरवाहनमप्यतः । अधिकार किया था। इधर राष्ट्रकूटव योय काराअके चरवारिधत्ततो द्वाभ्यासारित। पुर्व २य गोविन्द योवाम मान्यखेट नगरमें राजधानी महवाणस्य सदाउपगुमानां च शताय । स्थापन कर दक्षिणका गासन करते थे। श्य गोविन्द के एकविंशय पौगि कालविद्भिरदान ग दो तानशामनोंमे भास हुआ है कि यमराज गौड़देशके । दिचस्वारिंशदेवात करारपस्य रामता। 'जीतनेसे पपने पराकममें मत्त और गौड़राजके मत सतोऽनितमले रामा स्पादिपुरमस्थिनः" ॥८७.९२॥ च्छत्रको ग्रहण कर बैठे थे। श्य गोविन्दझे पिता राष्ट्रस्ट उहत सोको के पनुमार वोरनिर्वाण माय प्रति.

  • इसकत्तासे प्रकाशित हरिपुरामको प्रस्तावना में हम के सिंहामन पर पानक राजाका अभिषेक पायाम

' वाcिeी प्राट पर पुके हैं। वंगने ६० वर्ष, विजय (नन्द) गर्ने १५५ वर्ष, पुरुद