पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/३५५

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३१४ . विनसेन पाचार्यः . . . . . इममे प्रमाणित होता है कि वोरमेनके शिष्य स्वामी। रीका धीवीरसेनीयाऽशेषापद्धतिपंचिका जिनमेन हरिवंशकार जिनमेनमें पूर्व प्रसिद्ध हो चुके श्रौवीरप्रभुमःपितार्थपटना निलोहितान्यागमम् . थे। म मम्बन्ध नाथूराम प्रेमोने विपद्रवमाना ग्रन्यमें | याया श्रीजिनसेनसम्मुनियौरादेशितास्पितिः। मयिम्तर आलोचना की है, इसलिये हम यहां अधिक | टीका श्रीजयचिन्दितोरुधव ला सूमार्थसम्बोधिनी नहीं लिखते । योयुक्त प० लालाराम जैनने भी अपने स्थेयादारविचन्द्रमुसलतमा श्रीपालसम्पादिता।" धारा प्रकाशित पादिपुराणको प्रस्तावनामें हरिवंशकार इन नोको से जाना जाता है कि यीपाल नामक और पार्वाभ्य दयके रचयिता जिनमेनको भिन्न भिन्न | किसी जैनाचार्य ने शाम ७५८ में कपायनामत ग्रन्यः । व्यक्ति स्वीकार किया है। उनके मतम पार्वाभ्य दयकर्ता | की व्याख्यास्वरूप यह जयधवला नामको टोका ममाम जिनमेनने हो ७५८ काप्दमें मिहान्तशास्त्रको जयधवला की है। यह गाथासूत्र, स्त्र, पूर्णिसूत्र, वार्तिक पौर नामक टोका रचो है और उसके बाद उन्होंने आदि । वोरमेनीया टीका इस तरह पप्ताझीय टीका है। इसमें पुराण रचमा प्रारम्भ किया था, परन्तु वे उमे अधुरा हो| वीर भगवान द्वारा उपदिष्ट पागमका विषय, मुनियर छोड़ कर स्वर्गवासो हो गये ; इसलिये उसे उनके शिष्य जिनमेनका उपदेश और अन्यान्य मुनियों की रचना गुणाभद्राचार्य ने पूर्ण किया । गुगभद्राचार्य देखो। अतः | प्रभृति हैं तथा सूत्रार्थ ज्ञान के लिये इस जयधवला उनका यह भी मत है कि “उसके रचयिता जिनमेन | नामक टोकाको रचना की गई है पर्यात् इसमे किमो भकम ७७० तक जीवित थे, क्योंकि कीर्तिपेणके | तरह भो मिद नहीं होता कि शफ म० ७५८ में जिनमेन यिभ्य जिनमेनने शकम० ७०५में हरिवंशको रच बार विद्यमान थे ; क्योंकि उहत श्लोकों में जो संयत् बत पूरा किया था और अपने अन्य के प्रारम्भमें आदिपुराणकार | लाया है, वह थोपाल मुनिक पध मम्पादनका मामय सामो जिनमेनका उसख विगेष सम्मानके साथ किया है। वास्तवमें जिगमेनके गुरु वीरमेनने फिस समय है, तथा गयाम० ७५८ में उन्होंने जयधवल नामक | वीरसेनीय टीका रची और निगमेनने. वह विस्त त टोका रचो है। इस तरह प्रादिपुराण-कार खामो टीका कब समाम को, मका कोई भी उपयुक्त साधन जिनमेन, हरिवग कार जिनमेनको अपेक्षा अवश्य ही अब तक देखने में नहीं पाया है। ऐसी दशा में हम उनके ययोबड घे। इमलिये यदि कमसे कम ३० वर्ष भो विषयमें उपरोक्त सोकों के आधारमे इतना से कह सकते वयोहद हो तो अनुमानमे प्रादिपुराणकार जिनमेनका | है कि वे पुबाटगणीय जिनसेनमे पहिले इस मसारमें जन्म ६७५ शकमें हुया होगा। इस तरह उन्होंने ८५ | विद्यमान थे एवं शकस. ७०५मे पहले उन्होंने अपनी यको अवस्था आदिपुराणको रचना की होगी, ऐमा रचना की थी। माल म होता है। परन्तु प्रादिपुराणको पढ़नेमे मालम धादिपुराग्यकार स्वामी . जिनसेगाचार्यविरचित होता है कि इस तरह की रचना इतनो बड़ी उम्र को | पार्वाभ्य दयको अन्तिम प्रशस्तिगे और गुणभद्राचार्य होगी, यह बात मम्भव नहीं। तो भो पूर्वोक्त पुराण- विरचित पारिपुराण तथा उत्तरपुरापको प्रस्तायनासे विदगण पार जैन पण्डितपय योरमेनके गिय जिनसेनक, यह बात भली भौति मिह होती है कि गट इतनो बड़ी उमरके यतलाने में प्रधान कारण हैं । उन्होंने | यगीय प्रमोघवर्ष ने पादिपुराणाकार जिनमेनाचार्य का जो जयधयना टोकाका समामिनापक ७५८ का शिष्य होना स्वीकार किया था। बहुतमे इतिहरामन अपने प्रमाव दिया है उमे हम नीचे उद्धन कर कुछ चमोघवर्ष को गकम ७२६में मिहानगारपट 'पा । . विचार भारत। धारलाते हैं। परन्तु मारी मममने ये समोघवर्ष ने नहीं । "रामपरिमाविकाराप्तगतान्देपु रानरेन्दस्य । "ति विरचितमेतत्कामायष्टप मपं बरामदोर्ष ... समतीतेपु माया प्ययला प्रामृतस्यास्या कालिदागस्य पाय । मटिनितपक पवादा, मुषमा गापासूागि सत्रापि माणमूत्रं तु बातकम्। | मरतु देस। सर्वदा मोब:"uri .. .