पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/२३२

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जाति वैश्यकर्म च यो विप्रो लोभमोहट्यपाश्रयः । वेयं यच्चान निर्युःसमसुखंच नराधिप ब्राह्मण्यं दुर्लभं प्राप्य करोलपमति: सदा । वाभ्यां हीनं पदं चान्य मतदस्तीति समये। स द्विशो बैंश्यतामेति वैश्यो वा शहतामियात् ॥ युधिष्ठिर उवा। स्वधमान प्रच्युतो विप्रस्ततः शत्वमाप्नुते । ... हेतु यद्भवेयरम द्विजे तथ्य न विद्यते । एमिरतु कर्मभिर्देवि शुभराचरितस्तथा । न वे शूदो भयेको न प प्राह्मणी प्रामणः। शूदो बामणतां याति वैश्यः क्षप्रियता प्रजेत् ॥' यौतमयते स तं स ब्राह्मणः स्मृतः। महादेव कहते रहे हैं-" देवो! महजमें वामपत्य यतम मवेत् सर्प तं समिति निदिशेत् ॥ माम करना अत्यन्त कठिग है। मेरी रायसे ब्राह्मण, यत् पुनर्भवता प्रोकं ग येयं विद्यतीति च । जत्रिय, वैशा और शुद्र ये चार वर्ण हो प्रकृतिसिंह | ताभ्यां हीनमतोऽन्यत्र पदं नारतीति चेदपि। हैं। दुष्कर्म के अनुसार दिन अपने धर्म मे च्यु त हो एवमेतन्मतं सर्प साभ्यां होनं न चिठे। सकता है। इसलिए प्र.प्राणत्त्व प्राप्त कर, ( बहुत यथा शीतोष्णयोर्मध्ये भवेप्रोष्णं न शीतता ॥ प्रयानमे ) उसकी रक्षा करना हो विधेय है। जो क्षत्रिय एवं वै पुखदु.साभ्यां होनं नास्ति पदं क्वचित या यथा ब्राह्मणधर्म अवलम्बन कर जीविका-निर्वाह एषा मम मतिः सर्प यया वा मन्यते भवात् ॥ करते हैं, ये बामणव को प्राम होते हैं। किन्त जो सर्प नवाच । मापस पा कर शवधर्म को पालते हैं, वह फिर ब्राह्मण यदि ते वृत्तनो राजन् ग्रामण: प्रसमौक्षितः। धर्म से परिभ्रष्ट हो कर क्षत्रयोनिमें उत्पन्न होते हैं । इसी वृषा जातिस्तदायुष्मन् कृतियोयन विद्यते । प्रकार नो पल्पमति बाम टुर्लभ ब्राह्मणत्वको पा कर युपिटिर उपाच । लोम पौर मोहके यशर्तो हो वैशाकर्म का पायथ लेते जातिरत्र महासर्प मनुष्यस्वे महामते । हैं, वेशाव प्राप्त करते हैं। येशा भी शुद्रत्वको प्राप्त संकरात् सर्यवांना दुसरीक्ष्येति मे मतिः॥ हो मकते हैं। ब्राह्मण भी स्वधर्म मे य त हो कर सर्वे सर्यास्वपश्यानि अनयन्ति सदा नराः। शूद्रत्वको प्राप्त होते हैं । परन्तु अभकर्म के अनुष्ठान कर बांमिथुनमयो जन्म मरणंच समं नृणाम् ।। शूद भी ब्राह्मण व लाम कर सकते है तथा वेशा भी तःवच्छ्स मो होष यायदे न जायते।" क्षत्रियत्व प्राप्त कर सकते हैं। महाभारतके यनपर्व में सर्प ने कहा-हे युधिष्ठिर! तुम्हारी यासि हो. में भी ( १८० प०) लिखा है- ममझ गया कि, सुम बुद्धिमान हो। मुझे बतायो कि "सर्प उपाय।" ब्राह्मण कोन है। पौर माननेको घात योनसी ! माझग: को भवेत् राजन् पेयं किंच युधिष्ठिर। युधिष्ठिरने उसर दिया-नागराज! स्म तिक मतमे मत्य, प्रवीमतिमति खो हि वाक्यैरनुमिमीमहे । दान, समा, मोन, निर्दोष, तप पीर घमा ये गुण जिममें युधिष्ठिर उवाच । पाये जाय, वहो ग्रामण है। दुःव मुम्वयति मत हो सत्यं दानं क्षमा शीलमानृशंस्यं तपो पृगा। जाननेकी चीज है, जिसके पानेमे फिर गोफ नहीं करना स्यन्ते यत्र नागेन्द्र स मामणः इति स्मृतिः। पड़ता, और पापको क्या कहना है ? मने कहा- मेर सर्प परं प्रक्षा निदुःखममुलं च यत् । चारों वर्णके विषयमें वेद ही एकमा प्रमाण पोर गत्र गरबा न शोचन्ति भवतः कि विवक्षितम् ॥ सत्य माना जा मकता है। शूदमें भी मत्य, दान, सर्प उपाय। पक्रोध, पगंम्य, अहिंमा और एपा पाई जाती। चातुर्य प्रमाणं च सरपंच प्रवेव हि । पौर जाननेके विषयमें जिममें सुप दुःप नहीं है, इन सूदेवपि म सर्व पदानमकोष एवम दिनोंसे शून्य (मध मिया) कुछ भी नहीं दिपारं भानुशंस्यमाहिसा च पृणा व युपिहिर। देता। युधिष्ठिरने उत्तर दिया-किसी सदमें जो जो