पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/१८

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जन्माष्टमी इसको सूतक भी कहते है। साव, पात और प्रसूतः | सकते । जन्माष्टमी तियि किसी वर्ष सौर श्रावण मास के भेद यह तीन प्रकारका होता है। जो गर्भ २२ और कभी सौर भाद्रमासमें होती है, उप्त रोज उपवास, वा ४थे मास पर्यन्त गिर जाय उसे स्राव और जो वें । यथानियम श्रीक्षणकी पूजा, चन्द्रको अर्घ्य दान और वा हटे मासमें गिरी, उसे पात कहते हैं एवं वै मासके | रात्रिजागरण आदि कर व्रतो रहना पड़ता है । जन्मा- बादको अवस्थामें वह प्रसूत कहलाता है। गर्भस्राव मोका फल भविष्यके मतसे यह है कि केवलमात्र 'और गर्भपातमें सिर्फ माता के लिए उतने दिनोंका अशौच उपवाससे ही सात जन्मका किया हुआ पाप विमष्ट है. जितने मासका गर्भ गिरा हो तथा पिता भादि अन्य | होता है । मन्वंतर प्रभृति पुण्य दिनों में खान पूजा आदि कुटुम्बीमन स्नान मानसे शुद्ध हो जाते हैं। करने से जो फल मिलता, जन्माष्टमी के दिन उसका कोटि- प्रसव होने पर वशके लोगोंको १० दिनका प्रयोद | गुण फल निकलता है। होता है। किन्तु यदि वालक जोषित उत्पन्न हो कर ब्रह्मवैवर्तपुराणमें लिखा है कि उस दिन कैपल तर्पण नाल काटनेसे पहले ही मर जावे तो माताको १० करनेमे भी सौर वर्ष के गयाश्राद्धकी तरह पिटलोक दिनका तथा पिता मादिको ३ दिनका अथौध होता । टस होता है। स्कन्दपुराण के मतानुसार जन्माष्टमीका है। यदि बालक मृत उत्पन्न हो वा नाल काटने के । व्रत स्त्री और पुरुष सबको करना चाहिये । यह व्रत वाद मर जाय, तो माता पिता भादि समस्त कुटुम्बके करनेमे इम लोकमै सन्तान, सौभाग्य, पारीग्य, पतल लोगोंको १० दिनका सूतक लगता है। अशाच देखो। पानन्द तथा धार्मिकता आदि पाते पीर परकालमें जन्माष्टमी ( स. सी.) जन्मनः श्रीपणाविर्भावस्य येकुण्ठ जाते हैं। स्कन्दपुराणके मतानुसार जम्माष्टमीके भष्टमी, ६-तत् । श्रीकणके जन्मको अष्टमी तिथि ।। व्रतसे चतुर्वर्ग फल मिलता है। ब्रह्मपुराणमें लिखा है- भविष्योत्तर लिखा है-प्रतिवर्ष श्रावण मासके "अप भाद्रपदे मासि कृष्णरम्या कलै थुगे। कृष्ण पक्षमे जो मनुष्य जन्माष्टमीका प्रत न करेगा, महाविंशतिमे जातः ष्णोऽसौ देवकोमृतः। फरकर्मा राक्षसका जन्म लेगा और जी स्त्री जन्माष्टमी २८ कलियुगमें भाद्रमासको समपक्षीय अष्टमी | के व्रतसे विमुख रहेगो, अरण्यकी सर्पियो बनेगी। 'सिधिको देयकोके गर्भ से शोकण आविर्भूत हुए। वियोलाणकी प्रीतिके लिये भत्तों के साथ एकाग्रचित. या विष्णुपुराणके मतानुसार महामायासे भगवान ने कहा नयन्तो व्रत करना पड़ता है। इसको न करनेसे चौदह इन्द्रोंके भोग्य समय तक नरक भोग . "प्राहकाने व नमसि कृष्णाष्टभ्यामनिसि। करते हैं।जनमामीच दूसरा व्रत करनेसे वरपरस्यामि नवम्पाञ्च प्रति त्वमवाप्स्यसि " कोई भी फललाम नहीं होता। वही जन्माष्टमी तिथि . वर्षाकालमें यावण मासको लपाटमी तिथिको | निशीथ समयके पूर्वदण्ड अथवा परदण्डमें कलामात्र और निशीथ समय पर में प्राविभूतगा , तुम दूगरे दिन | रोहिणी नक्षत्र के साथ पाती, जयन्ती जैसी कहलाती नवमो को अवतीर्ण होगी। है। इसीका नाम जयन्ती योग है । (बराहसहिता) जयन्ती उपरोक्त दोनो वचनों में श्रावण और भाद्र उभय | योगमें उपवास प्रभृतिमें अधिक फल होता है। वह मासकी श्रीक्षणका जन्ममास जैसा कहा है। सुतरां सोमवार वा बुधवारको पड़नेमे और भी प्रशस्त है। मुख्यचान्द्र और गौणचान्द्र भदसे - इसका समाधान कालमाधवीयके मतमे जन्मारमोत्त तथा जयन्तीतत होगा। . . . . . ... पृथक् है। उपवास, जागरण, अचेमा, दान एवं ब्राह्मण ., जब मुख्यचान्द्र थापाको रुणाष्टमी ही गोणचन्द्र भोजन इन कार्योका नाम जयन्सोवत है। केवल स्पधाप- भाद्रपद की कृष्णाष्टमी होती है, तो भिन्न भिन्न वचनों को जनमाष्टमो व्रत कहा जाता है। महीनेका अलग अलग उल्लेख असन्त नहीं समझ . , ब्रह्माण्डपुराण में एमी जन्माष्टमी वा जयन्तीवतको Vol. VIILA