पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/१०

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नन्द-भवस्ता-जन्म • एक जगह घर-दार बना कर रहने लगे। परन्तु हिन्दू लोग कालसे विवाद चल रहा है। परन्तु ये दोनों ही तत्त्व

उनके अधिकतस्थानमें पाकर उपद्रव मचाने लगे। इस अहुरमन के अंगस्वरूप है। अनिष्टकारी देव उनका

तरह दोनों समाजों में विरोध उत्पब दुपा। पारसियों ने विपो नहीं हैं। इष्ट और अनिष्ट इन दोनों के अधिष्ठाता हिन्दुमो के वावहारमे रुट हो कर उनसे समस्त सम्बन्ध, उनके भीतर विद्यमान है। अ.न्दप्रवक्ताको प्राचीन तोड़ दिये। पड़ने पहल उन लोगों ने देव पूजा छोड़ दो। गाथामि उहा मत स्पष्टतया परित्यक्त होने पर भो. पहले कहा जा चुका है कि प्रति प्राचीन काल में असर परवर्ती यथो में अनिष्टका पधिपति पृथक माना गया शब्द.सदर्थ में वावरत होता था। उन लोगों ने देव- है। -पूजा छोड़ कर असुर-पूमा. करनो शरू कर दो। · सत् और असत् देवदूत एवं उनकी सभाका उल्लेख .. म होगका यह मत कहां तक समोचोन है, इस | ज.न्दप्रवस्ताम मिलता है। बातका निर्णय विहान हो कर सकते हैं। कुछ भी हो | जन--एक दिगम्बर जैनकवि। ये कर्णाटक देशके रहने- यह बात तो निश्चित है कि हिन्दू धर्म और पारसी धम। वाले थे। । दोनों एक ही प्रस्रवणसे उत हुए है। | जम्म (जन्मन् ) (म'• ली.) जायते इति जन-प्रोणादिक,

अन्दरता में एरेश्वरपाद-अवस्ताको प्राचीनतम गाया) मनिन् । १ उत्पत्ति, उन्नय, पैदायग। २ आद्यक्षण
ो मे मान्न म होता है कि पारमो लोग एकखरवादी, मम्बन्धी ३जीयन, जिन्दगो। ४ फलितज्योतिपके

हैं। जरथ स्वसे पहले जिन्होंने धर्म प्रचार किया था, मतमे जन्मकुण्डलीका एक लग्न, जिसमें कुण्डलीवाला वे वहुदेवयादमें पिखास रखते थे। जरथ म इस मतमे | जन्म लेता हो। ५ पपूर्व देइग्रहण, गर्म मेमे निकल कर .सहमत न थे। उन्होंने समस्त प्रान्तमतों का परिहार नई देह पानका काम, पैदायश । (भ्याय ) इसके मस्कस . करके एकेश्वरवादका प्रचार किया। ईश्वरको उन्होंने पर्याय ये हैं-जनुः, जन, अनि, उद्भव, जन्म, जनी मभव,

मधुर मादामो नाममे प्रसिद्ध किया था। मजदाभो । भाव, भव, संभव, जन , प्रसनन और लाति।

ही प्रधान है, पहुए उनका विशेषण है। ___प्रायवर्त पुराणके पढ़नेमे मासूम होता है कि, यहदी सोग जिस तरह जिशेवाको ही एकमात्र प्राणी मात्रको स्व स्व पानित शुभ या अशुभ कमौके ईसा मानते हैं, उसी प्रकार पारमो भो पहर मजदाभो । अनुसार उत्पा, या अपकृष्टरूपसे जन्म लेना पड़ता है। को एकमात्र भगवान मानते हैं। वे हो स्था भौर मतके - जैनमतानुसार--मसारका प्रायेक जीव या प्राणी समस्त जीवों के स्रष्टा हैं. जगत्के एकमात्र पधोखर अपने उपान न किये हुए गति नाम कर्म के अनुसार एक हैं, उन्होंने अपर समस्त जोवी का मार है। वे ही एक. शरीर छोड़ कर दूसरे शरीर धारण करने के लिए जन्म मात्र ज्योति हैं और समस्त पानीको के पाधार हैं। लिया करता है।ग विस्थामें भी उनमें चेतनत्व रहता बुद्धिमें वे हो बुस्थिति है। है. वे कौका पूरी तौरसे पनुभव करते हैं। • जायुम्न के देवतत्त्व वां Theology को दृष्टिम इस वैदाकमतानुसार-ऋतु होने के उपरान्त जिस ममय प्रकार एकेश्वरवादका प्रचार करने पर भी, दार्य निक। योनिक्षेत्र पद्मको तरह विकसित रहता है, उस समय हो दृष्टिमे उन्होंने इतवाद माना है। युग युगमें मनुष्यों के | शोणितविशिष्ट गर्भागय वोर्य धारण करने के उपयुक्त होता 'मनमें यह समस्या उत्पन्न हुई है कि भगवान् यदि सर्प है। दूसरे समय योनिदेव मुदा हुपा रहता है। परन्स, 'महलके कारण और मनुथो के करुणामय पिता हैं, तो ऋतुके समय भी वात, पित्त पोर भावे आहत होनेमे पृथियो में इसना दुःख, कष्ट; यत्रणा कोम लाया ? प्रति यदि वह विकसित न हो, तो गर्भ नहीं रहता। ऋतु. 'प्राचीनकालमें महामति जरथ स्वनेमके उत्तर में कहा | कान उपस्थित होने पर यदि अविकत वोयं निपित हो, था कि, मङ्गलसम के एक निदानकर्ता हैं और एक वे भी तभी वह वायुगतिसे चालित हो कर स्त्रीके रजके साथ हैं जो धियो पर अमल लातिनं दोनों में प्रनादि । मिल सकता है। उस समय ही निपिता वीय में करण-