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हिन्दी भाषा की उत्पत्ति।

आरम्भ हुआ। कोई १०० वर्ष बाद औरंगाबाद के वली नामक शायर ने उसकी बड़ी उन्नति की। वह "रेख़्ता का पिता" कहलाया। धीरे-धीरे देहली में भी इस कविता का प्रचार हुआ। अठारहवीं सदी के अन्त में सौदा और मीर तक़ी ने इस कविता में बड़ा नाम पाया। इसके बाद लखनऊ में भी इस भाषा के कितने ही नामी-नामी कवि हुए और कितने ही काव्य बने। और अब तक बराबर इसमें कविता होती जाती है। खेद है, हिन्दी में अभी कुछ ही दिन से बोल-चाल की भाषा में कविता शुरू हुई है।

डाॅक्टर ग्रियर्सन की राय है कि गद्य की हिन्दी, अर्थात् बोल-चाल की भाषा, में अच्छी कविता नहीं हो सकती। दो एक आदमियों ने गद्य की भाषा में कविता लिखने की कोशिश भी की; पर उन्हें बेतरह नाकामयाबी हुई और उपहास के सिवा उन्हें कुछ भी न मिला। इस पर हमारी प्रार्थना है कि डाॅक्टर साहब की राय सरासर ग़लत है। यदि दो-एक आदमी गद्य की हिन्दी में अच्छी कविता न लिख सके तो इससे यह कहाँ साबित हुआ कि कोई नहीं लिख सकता। डाॅक्टर साहब जब से विलायत गये हैं तब से इस देश के हिन्दी-साहित्य से आपका सम्पर्क छूट सा गया है। अब उनको चाहिए कि अपनी पुरानी राय बदल दें। बोल-चाल की भाषा में कितनी ही अच्छी-अच्छी कवितायें निकल चुकी हैं और बराबर निकलती जाती हैं। जितने प्रसिद्ध-प्रसिद्ध समाचार-पत्र और सामयिक पुस्तकें हिन्दी की हैं उनमें अब बोल-चाल की भाषा की अच्छी-अच्छी कवितायें हमेशा ही