पड़ता है। "दर्शन" शब्द तत्सम है। अब इससे यदि क्रिया
का काम लेना है। तो "करना" और जोड़ना पड़ेगा। अतएव सर्वसाधारण लक्षण यह है कि हिन्दी में जितने नाम या
संज्ञायें हैं सब या तो तत्सम हैं, या अर्द्ध-तत्सम हैं, या तद्भव
हैं; पर क्रियायें जितनी हैं सब तद्भव हैं। यह स्थूल लक्षण हैं।
इसमें कुछ अपवाद भी है, पर उनके कारण इस व्यापक लक्षण
में बाधा नहीं आ सकती।
जब से इस देश में छापेख़ाने खुले और शिक्षा की वृद्धि हुई,
तब से हिन्दी में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुत
अधिकता से होने लगा। संस्कृत के कठिन कठिन शब्दों को
हिन्दी में लिखने की चाल सी पड़ गई। किसी-किसी पुस्तक
के शब्द यदि गिने जायँ तो फ़ी सदी ५० से भी अधिक संस्कृत
के तत्सम शब्द निकलेंगे। बँगला में तो इस तरह के शब्दों की
और भी भरमार है। किसी-किसी बँगला पुस्तक मेँ फ़ी सदी ८८
शब्द विशुद्ध संस्कृत के देखे गये हैं। ये शब्द ऐसे नहीं कि
इनकी जगह अपनी भाषा के सीधे-सादे बोल-चाल के शब्द लिख
ही न जा सकते हों। नहीं, जो अर्थ इन संस्कृत शब्दों से
निकलता है उसी अर्थ के देनेवाले अपनी निज की भाषा के
शब्द आसानी से मिल सकते हैं। पर कुछ चाल ही ऐसी पड़
गई है कि बोल-चाल के शब्द लोगों को पसन्द नहीं आते। वे
यथासम्भव संस्कृत के मुश्किल-मुश्किल शब्द लिखना ही ज़रूरी
समझते हैं। फल इसका यह हुआ है कि हिन्दी दो तरह
की हो गई है। एक तो वह जो सर्वसाधारण में बोली जाती