दूसरे प्रकार की प्राकृत का विकास होते-होते उस भाषा की
उत्पत्ति हुई जिसे "साहित्य-सम्बन्धी अपभ्रंश" कहते हैं। अपभ्रंश का अर्थ है--"भ्रष्ट हुई" या "बिगड़ी हुई" भाषा। भाषाशास्त्र के ज्ञाता जिसे "विकास" कहते हैं उसे ही और लोग
भ्रष्ट होना या बिगड़ना कहते हैं। धीरे-धीरे प्राकृत भाषायें,
लिखित भाषायें हो गई। सैकड़ों पुस्तके उनमें बन गई।
उनका व्याकरण बन गया। इससे वे बेचारी स्थिर हो गईं।
उनकी अनस्थिरता, उनका विकास बन्द हो गया। यह लिखित
प्राकृत की बात हुई, कथित प्राकृत की नहीं। जो प्राकृत लोग
बोलते थे उसका विकास बन्द नहीं हुआ। वह बराबर विकसित होती, अथवा यों कहिए कि बिगड़ती, गई। लिखित
प्राकृत के आचार्य्यों और पण्डितों ने इसी विकास-पूर्ण भाषा
को अपभ्रंश नाम से उल्लेख किया है। उनके हिसाब से वह
भाषा भ्रष्ट हो गई थी। सर्वसाधारण की भाषा होने के कारण
अपभ्रंश का प्रचार बढ़ा और साहित्य की स्थिरीभूत प्राकृत का
कम होता गया। धीरे-धीरे उसके जाननेवाले दो ही चार
रह गये। फल यह हुआ कि वह मृत भाषाओं की पदवी को
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