पैदा हुई थी। इस भाषा के साथ-साथ एक परिमार्जित भाषा
की भी उत्पत्ति हुई। यह परिमार्जित भाषा भी पुरानी संस्कृत
की किसी उपशाखा या बोली से निकली थी। इस परिमार्जित भाषा का नाम हुआ "संस्कृत" अर्थात् "संस्कार की
गई"--"बनावटी"; और उस नई भाषा का नाम हुआ "प्राकृत" अर्थात् "स्वभावसिद्ध" या "स्वाभाविक।"
वेद-मंत्रों का कुछ भाग तो पुरानी संस्कृत में है और कुछ परिमार्जित संस्कृत में। इससे साबित है कि वेदों के ज़माने में भी प्राकृत बोली जाती थी। इस वैदिक समय की प्राकृत का नाम पहली प्राकृत रक्खा जा सकता है। इसके बाद इस पुरानी प्राकृत का जो रूपान्तर शुरू हुआ तो उसकी कितनी ही भाषायें बन गई। पहले भी पुरानी प्राकृत कोई एक भाषा न थी। उसके भी कई भेद थे; पर देश-कालानुसार उसकी भेद-वृद्धि होती गई और धीरे-धीरे वर्तमान संस्कृतोत्पन्न आर्य्य-भाषाओं के रूप उसे प्राप्त हुए। इस मध्यवर्ती प्राकृत का नाम दूसरी प्राकृत रख सकते हैं। पहले तो संस्कृत की भी वृद्धि इस दूसरी प्राकृत के साथ ही साथ होती गई; पर वैयाकरणों ने व्याकरण की श्रृंखलाओं से संस्कृत की वर्द्धनशीलता रोक दी। इससे वह जहाँ की तहाँ ही रह गई; पर प्राकृत बढ़कर दूसरे दरजे को पहुँची। उसका तीसरा विकास वे सब भाषायें हैं जो आज कोई ९०० वर्ष से हिन्दुस्तान में बोली जाती हैं। हिन्दी भी इन्हीं में से एक है। उदाहरण के लिए वेदों की बहुत पुरानी संस्कृत पहली प्राकृत; पाली दूसरी प्राकृत और हिन्दी तीसरी प्राकृत है।