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हिन्दी-निरुक्त : ७९
 

पड़ा है, या अनारदाने; तो कह देंगे कि इसमें या तो अमचूर है, या अनारदाने । महर्षि यास्क ने अपने निरुक्त में इसी तरह शतशः शब्दों की निरुक्ति अनेकधा की है। 'निघण्टु' शब्द 'गन्तु' (गम् ) का विकास बतलाया है, तो साथ ही 'हर्तु (ह) से निष्पन्न होने की सम्भावना भी प्रकट कर दी है। इसका मतलब यह कि 'ग' तथा 'ह' को 'घ' के रूप में आना यास्क मानते हैं। उस समय शब्द-प्रवाह में यह चीज होगी। तभी तो वैसी निरुक्ति की गयी है। यही बात सभी प्राचीन भापाओं के सम्बन्ध में है, जो अपनी पूर्ववर्तिनी भाषा से परम्परया शब्द लेती चली आ रही हैं। हिन्दी में अभी निरुक्त पर कोई ग्रन्थ निकला ही नहीं है। यह छोटी-सी पुस्तक तो इधर ध्यान आकर्षित करने के लिए ही लिखी गयी है। 'ग्रन्थ' आगे चलकर बनेंगे। हिन्दी में संज्ञा-विशेषण आदि का विकास ही विचारणीय नहीं है, क्रिया- वाचक शब्दों पर भी ध्यान देना चाहिए। क्रिया ही तो भाषा में मुख्य चीज है। सबसे महत्त्वपूर्ण विचारणीय विषय है प्रत्यय-विभक्तियाँ आदि । किस प्रत्यय और किस विभक्ति का विकास कहाँ से किस तरह हुआ; यह निरुक्त का प्रधान विषय है। महर्षि यास्क ने प्रत्यय- विकास पर ध्यान नहीं दिया है ; इसका कारण यह है कि उस समय तक प्रत्ययों में कोई वैसा रूपान्तर हुआ ही न था । सम्भव है, उन्होंने जान-बूझकर उधर ध्यान न दिया हो और यत्किञ्चित् प्रत्यय-भेद होने पर भी उस पर विचार न किया हो । परन्तु इससे यह निष्कर्ष तो नहीं निकलता कि प्रत्यय-विकास निरुक्त का विषय नहीं । भाषा- विकास निरुक्त का विषय है, जिसमें प्रकृति-प्रत्यय सभी कुछ है। जब हिन्दी में निरुक्त पर गम्भीर ग्रन्थ-रचना होगी, तो भाषा सम्बन्धी अनेक रहस्य खुलेंगे: इसमें सन्देह नहीं। 00