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७४ : हिन्दी-निरुक्त
 

'दल' को 'दाल' इसलिए किया गया; क्योंकि एक अन्य ऐसा ही शब्द अन्यार्थ में प्रसिद्ध था-'दोनों दलों में जमकर युद्ध हुआ।' धूम्र' का विकास 'धुआँ हुआ यद्यपि 'धूम' हो सकता था । परन्तु हिन्दी में चहल-पहल' के लिए 'धूम' प्रसिद्ध था---'बड़ी धूम रही।' ___ कभी-कभी अनुनासिक-प्रयोग से भो हिन्दी ने सन्दिग्धता दूर की है ! 'पृच्छ' का 'पूछ' हुआ-'पूछ-ताछ' । तब 'पुच्छ' का विकास 'पूंछ' के रूप में हुआ। अनुनासिक का आगम केवल स्पष्टता के लिए; अन्यथा, 'पुच्छ' का विकास भी 'पूछ' ही होता। संस्कृत का 'अस्वा' हिन्दी में 'अम्मा' हुआ, मुसलमानों में 'अम्मी' हो गया । 'अम्' का लोप कर के 'मा' रहा, जिसे साहित्य ने भी ग्रहण कर लिया। 'माता' से 'मा' नहीं है-'मात-पिता' ही चलते हैं। मात-वाचक 'मा' फिर संस्कृत में भी कहीं चला गया है—'मारमा- सुषमाचारु ! वैसे 'मा' शब्द संस्कृत में लक्ष्मी-वाचक है। माता के अर्थ में 'मा' हिन्दी से ही गया है। मायापुर में नहर गंगा जी से निकली और फिर कानपुर में उसी से आ मिली, अत्यन्त घिसे-घिसाये रूप में। ऐसा बहुत ही कम देखने में आया है कि अन्यत्र विकास प्राप्त वैसे शब्द पुनः संस्कृत में जा मिलें । 'मा' का भी संस्कृत में (माता के अर्थ में) क्वाचिक हो प्रयोग है; पर है। बंगाल में स्त्री-सम्मानार्थ प्रचलित 'मा शब्द संस्कृत का तद्भव नहीं, अपितु 'लक्ष्मी'-पर्याय (तत्सम) 'मा' है। इसीलिए वहाँ 'बहू मा' प्रयोग होता है-'बहू-लक्ष्मी' या 'लक्ष्मी- रूप बहू । इस तरह अर्थ-भेद से शब्द-भेद सर्वत्र समझना चाहिए। कभी कभी स्त्री-पुभेद कर के भी सन्दिग्धता का परिहार किया गया है। संस्कृत 'तुष' का हिन्दी में विकास किंचित् भिन्न अर्थ में हो कर 'भुस' बन गया। शब्द-प्रवृत्ति का कारण असारता । सार (अन्न, चावल) निकाल लेने पर ऊपर का जो छिलका बच जाता है, उसे संस्कृत में 'तुष' कहते हैं। यह असारता (मानव के लिए अभोज्यरूपता) समान धर्म लेकर जौ-गेहूं आदि के माँड़े हुए चारे की ओर भी इसी शब्द की प्रवृत्ति हुई; पर शब्द भेद हो गया--'भुस ।' 'त' का 'भ' हो जाना कोई बड़ी बात नहीं, जबकि 'द' को 'झ' (दोला-झूला) और 'क' तक (दा, दे, दी-~~-का, के, की) हो जाता है । जब एक नये अर्थ में 'तुष' का "भुस' रूप चल पड़ा, तो 'तुष' के मूल अर्थ का द्योतन कैसे