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७२: हिन्दी-निरुक्त
 

अलग । दोनों भिन्न चीजें हैं। इस 'पाती' को 'पात' का स्त्री-लिंग रूप न समझ लीजिएगा। जनता के सामने 'भैंस' रहती है, 'रानी' नहीं। फलत: 'महिषी' का 'भैस' बना, एक जानवर के अर्थ में । 'राज- महिपी संयोगिता' को 'राजा की भैस संयोगिता' न कहेंगे । ____ जनता का काम कपड़ा सीने के लिए लोहे की जिस चीज़ से पड़ता है, उसे उससे मतलब । 'सूची' का 'सुई' विकास हुआ। परन्तु पढ़े-लिखे लोग ‘विषय-सूची' को ज्यों का त्यों पढ़ते-बोलते रहे। इसलिए 'पुस्तक की सुई देखने से' ठीक न रहेगा। उस अर्थ में 'सूची' का विकास हुआ ही नहीं है। तत्सम प्रयोग ही चलता है-'सूची' । सन्दिग्धता हिन्दी रखती ही नहीं । 'घड़ा' का छोटा रूप 'घड़ी' न होगा, यद्यपि पत्ता' का 'पत्ती' होता है । 'घट' से 'घड़ा' है। छोटा घडा 'घडिया' तो होता भी है। 'घड़ी' इसलिए नहीं कि संस्कृत का, (समय-सूचक) 'घटी-यंत्र' का, 'घटी' हिन्दी में 'घड़ी' हो गया, जैसे 'वट' का 'बर्ड'। जव एक शब्द इस अर्थ में चल पडा, तब किसी दूसरे अर्थ में उसी तरह का शब्द हिन्दी ने नहीं ग्रहण किया । मैं समझता हूँ कि हिन्दी को विकास-प्रवृत्ति समझने के लिए ये उदाहरण पप्ति ३०-संक्षेप का ध्यान हिन्दी ने शब्द-विकास में या शब्द-ग्रहण में संक्षेप का ध्यान बहत रखा है और शालीनता भी रखी है। 'रसाल' शब्द जनप्रचलित नहीं हआ और 'आम्र' को 'आम' बनाकर आम वोल-चाल में स्वीकृत किया । संस्कृत में आम का पर्याय एक और शब्द है, छोटा सा । 'आम' लेने में हिन्दी को 'रु' घिसना पड़ा; पर उस शब्द को लेती, तो यह झंझट भी न करनी पड़ती । परन्तु हिन्दी ने उस शब्द को ग्रहण इसलिए नहीं किया, क्योंकि गॅवारू बोली में उत्ती रूप का शब्द स्त्री के गोग्य अंग-विशेष के लिए बोला जाता है। हिन्दी ने अपने क्षेत्र में अश्लीलता नहीं आने दी है। कभी-कभी एक शब्द को तोड़कर दो पृथक्-पृथक शब्द बना लिये गये हैं-एक ही अर्थ में । संस्कृत के 'बलीवर्द' शब्द को तोड़ कर बैल तथा 'वरध' या 'बरधा' बने । 'बैल' साहित्य ने भी ग्रहण कर लिया है । संस्कृत 'गोधम' का विकास फारसी में 'गन्दुम' हुआ।