जन-विकसित शब्दों में भी चन-सन्देह की गुंजाइना नहीं है। बंश
का विकास त्रास हुआ. एक ही अर्थ में ! 'कुल के अर्थ में यह विकास
नहीं हुआ। उस अर्थ में बंम हुआ। परन्तु वंसी फिर कैसे ? वह तो
'बॉस' की होती है न? हिन्दी ने 'वॉनसे बाँमी' बनाया है। मछली
पकड़ने के लिए एक लम्बे-पतले बाँस में डोरी-चारा बाँध कर काम में
लाते हैं। इसी का नाम बाँसी है। इसीलिए मुरली के अर्थ में 'बाँसी
का प्रयोग नहीं हुआ-वंसी' जरूर चला। परन्तु यह वंसी सद्भव
'बाँस से निप्पन्न नहीं है। संस्कृत (वंश से 'नियन वंशी' शब्द
का ही यह तद्भव रूपी वंसी है। बनी-बनायी चीज ले ली है। ब्रज-
भाषा-साहित्य में श्लिप्ट-रूपक आदि देने के लिए बाँसी को भी
कवियों ने विंसी' कर लिया है यह अलग बात है और उस कारीगरी
के लिए क्षम्य भी हैं- मोहन की बंसी ने मेरो मन-मीन बेध्यो।'
इसी तरह 'पृष्ठ का विकास 'पीठ' जनता में हुआ–'पीठ का
फोड़ा। परन्तु 'पुस्तक के वारहवें (या वारहवीं) पीठ पर वह लिखा
ये' ऐसा नहीं कह सकते। यहाँ 'पृष्ठ' ही रहेगा। कारण, जनता ने
अपने व्यवहार के लिए अंग-विशेष के अर्थ में 'पप्ठ' का 'पीठ' बनाया
है, उसी में चलेगा। पढ़े-लिखे लोग तो अपनी पुस्तकों के पृष्ठ' ज्यों
के त्यों पढ़ते-बोलते रहे । यहाँ 'पीठ' नहीं बोला गया । इसीलिए इन
अर्थ में वैसा विकास गृहीत नहीं है।
जनता ने 'पत्र' को 'पत्ता' बना लिया। परन्तु पढ़े-लिखे लोग
आपस में 'पत्र-व्यवहार ही करते रहे। इसीलिए पेड़ के पत्ते गिरते
हैं', पर डाकिया अपने झोले में पत्ते नहीं, 'पत्र' भरे रहता है। पत्र'
लिखने वाले उसका वही उच्चारण कर सकते थे, करते रहे। इसीलिए
ये में उस शब्द का वैसा विकास न हुआ। इसीलिए हिन्दी में
असन्दिग्धता या स्पष्टता रही। 'पत्ता का स्त्रीलिंग 'पत्ती हआ।
छोटा पत्ता-पत्ती'। परन्तु संस्कृत में वृक्ष के छोटे पत्ते को 'पत्री'
नहीं कहते हैं। यानी 'पत्री' का विकास पत्ती' नहीं है। 'पत्र से
'पत्ता' और फिर इसका स्त्री-लिंग रूप 'पत्ती संस्कृत में 'पत्री' या
'पत्रिका' कहते हैं 'चिट्ठी' को। हिन्दी में 'चिट्ठी' के साथ 'पत्री भी
चलने लगा---'चिट्ठी-पत्री' जैसे 'बाग-बगीचा आदि चलते हैं।
फिर 'चिट्ठी' का 'चीठी हो गया और इस 'पत्री' का 'पाती' विकास
हुआ---'प्रेम की पाती । सो, 'पत्री' का अलग विकास है, 'पाती' का
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हिन्दी-निरुक्त :७१