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हिन्दी-निरुक्त:६९
 

कम हो जाना भी नापा-विज्ञान में विक्रानही है। कभी दाद-त्रिकाम हो जाने पर भी अर्थ पूर्ववन रहता है। नया पढ़ धातुओं के अर्थ में कोई अन्तर नहीं है। कभी वाचिक अर्थ-विस्तार होता है. नुहाबिरे आदि में । गृह का घर हो गया: शब्द-बिकाम होने पर भी अर्थ में कोई अन्तर नहीं । परन्तु प्लेग में वेचारे रान का घर बिगड़ गया' यहाँ पर के बदल गृह नहीं दे सकते है। अर्थ-विस्तार की कोई सीमा नहीं है। इसे गन्द की तरह दो- चार वर्गों में बाँटना सम्भव नहीं है। इसलिए पूर्वाचाश्चों ने भी इन पर विस्तार से विचार करना आवश्यक नहीं समझा है। साधारणतः इतना समझ लेना पर्याप्त है कि अर्थ-विकास किस तरह होता है। हिन्दी ने अर्थ-विस्तार कई दृष्टियों से किया है, जिनमें असन्दिग्धता- सम्पादन मुख्य है । संस्कृत में पच् धातु का अर्थ पचना भी है और पकाना भी। मूल अर्थ 'पकाना है और इसीलिए बह सकर्मक है- "राम: ओदनम् पचति'-राम भात पकाता है ! परन्तु इसी शन का 'कर्म-कर्त' प्रयोग करके 'पचना' अर्थ भी लिया जाता है-'भोजनं प्रायो यामद्वयेन पच्यते निरुजस्य'--नोरोग आदमी का भोजन प्रायः छह घण्टे में पच जाता है। संस्कृत में 'पच्' का ही प्रयोग है: एक जगह 'कर्तरि और अन्यत्र 'कर्म-कर्तरि । परन्तु हिन्दी ने ऐसा झमेला नहीं रखा और अर्थानुरूप शब्द में कुछ परिवर्तन कर दिया। 'पच् जो मूल अर्थ (कत वाच्य में) संस्कृत ने रखा है, उस अर्थ में हिन्दी ने उसे 'पका' कर के लिया है । 'च' को 'क' और अन्त में दीर्घ 'आ! 'राम रोटी पकाता है। पेट में जठराग्नि से जीर्यमाण होने को पचना' कहते हैं ! यहाँ 'पच शब्द में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। स्वरान्त होना हिन्दी के लिए साधारण बान है। हाँ, क्रिया अब सकर्मक नहीं, अकर्मक है-'अन्न पचता है। इसी तरह शतशः शब्द-परिवर्तन हुए हैं: केवल स्पष्टता के लिए। अर्थ-विस्तार हुआ ही है- पचना और बात है, 'पकाना' और। 'पकाना' का 'कर्म-कर्तृ' 'पकना' है-'दाल पक रही है। इस तरह सब स्पष्ट है। ____संस्कृत का उत्' उपसर्ग हिन्दी में के रूप में विकसित हुआ है। 'उत्पद्यते' का 'उत्पद्य' अंश लेकर हिन्दी ने 'उपज' बना लिया। 'क्षेत्रेऽन्तमुत्पद्यते-खेत में अन्न उमजता है। परंतु हिन्दी में एक