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हिन्दी-निरुक्त:६७
 

को और चलते-चलते घिसना जाना है। मैनपुरी नक कुछ झनक मिलती भी है; पर आने कोरा का रह जाता है-'कहा करे निरवल मनुज ? 'का करै कोज उन ने लड़के ' ____ आगे जैसे-जैसे पूरब में माया बदनी जाती है, के दर्शन कम होते जाते हैं। बङ्गाल में आमार हो गया है हमारा 'हमार। इसी तरह शनाः सहस्रशः विकास हैं। बङ्गाल में ह जैसे उड़ना है। पंजाब में वैसे ही जमता है। एक मधुर भाषा है. दूसरी कटोर। मधर भाषा को महाप्राण की ऋक्रयता न चाहिए। पंजाबी भापा को उसकी जरूरत है। वह 'और' को भी 'होर' बना लेती है और इक को हिक': मो आप देख चुके हैं। पूरव-पच्छिम का अन्तर है। ह के लोप, आगम नया प्रभाव ने भापा भरी हुई है। आवश्यकता इस बात की है कि विकास के एक-एक तत्व तथा कारग पर अन्ना- अलग विचार हो। इसमें अनेक रहस्यों का उद्घाटन होगा! हमें विश्वास है, हिन्दी में वह समय अब आ ही रहा है। ___लोप-प्रकरण में यह बात ध्यान देने की है कि जब किसी इकारान्न व्यंजन का लोप होता है, तो शेष 'इको विकल्प से 'ध हो जाता है—कोकिल-कोइल-(कोइलिया)-कोयल। कोऽपि'-कोई-कोई-कोय । जाहि-जाइ-जाय । होहि-होइ-होय। कभी-कभी तो वर्ण-लोप इस तरह होता है कि कुछ पता ही नहीं चलता । ब्रज में 'सद लोनो' शब्दखद प्रचलित है। सद लोनी---ताजा मक्खन । सद्यः निःसृत नवनीत–सद्यः नवनीत'। फिर सद्य का 'सद'-य लोप होकर । नवनीत' का 'लौनी' बहुत विचित्र विकास है। कहीं-कहीं 'लैन' और 'नैन भी होता है। जन-प्रचलित 'नवनीत' का कैसा स्वच्छन्द विकास हुआ है !