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पाँचवाँ अध्याय

२५-वर्ण-लोप अब हम 'वर्ण-लोप पर विचार करेंगे। पिछले अध्यायों में आप ने शतशः वर्णों (स्वरों तथा व्यंजनों) का लोप देख लिया है। फिर भी एक पृथक् अध्याय में विशेष रूप से कुछ कहने की जरूरत है। कुछ कहना शेष है। परन्तु संक्षेप का ध्यान रखा जायगा। भाषा के विकास में स्वर तथा व्यंजन का लोप होता रहता है। 'अहैं' के 'अ' का लोप होकर है' बन गया। 'अहै' की उत्पत्ति 'अस्' से है; स् कोह, करके । . अहै' का सगा भाई आहि है-~-'जाने को आहि वसै केहि गामा! 'आहि के 'आ' का लोप होकर 'हि' अंश एक क्रिया-विभक्ति के रूप में प्रयुक्त होने लगा, वर्तमान काल में हो- 'राम करहि सब के सब काजा । 'करहि-करता है । 'हू,' का लोप --'करई। सन्धि हो कर राम करै सब जग का पालन।' इस प्रकार का लोप स्वतः जनता द्वारा होता है। यदि अज्ञानवश कोई किसी शब्द को काट दे, तो उसे 'विकास' न कह कर 'विनाश' कहा जायेगा! संस्कृत में 'अपि' उपसर्ग का 'अ उड़ गया और विधत्ते', 'पिधानम् आदि रूप चले । इसी अनुकरण पर कोई 'अनुसरणम् को 'नुसरणम् करना चाहे, तो मूर्ख बनेगा। हिन्दी के महालेखक भी 'अभिज्ञ' को 'भिज्ञ' लिखते देखे गये हैं। कविवर थी भगवतीचरण वर्मा-जैसे लोग भी 'अभिज्ञ' को 'भिज्ञ कर बैठे हैं, जिनकी पुस्तकें 'एम० ए० तथा 'साहित्यरत्न' में चलती हैं; छात्रों को हिन्दी का आदर्श रूप देने के लिए। यह भयंकर गलती इसलिए हुई कि अभिज्ञ के अ' को इन विद्वानों ने निषेधार्थक समझा और 'अभिज्ञका अर्थ अविज्ञ समझा! इन्होंने यह समझा कि मूर्ख लोगों ने 'भिज्ञ' में 'अ' जोड़ लिया है, जैसे स्तुति' को 'अस्तुति' कर देते हैं ! उसी 'गलती को दुरुस्त करने