पृष्ठ:हिन्दी निरुक्त.pdf/५५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
हिन्दी-निरुक्त  : ५७
 

ने 'का' को 'आ' का रूप दे दिया और प्रकृति के ' को सदा इब् किया-पर्यडका -पलगिया । यही नहीं, हिन्दी ने स्वतन्त्र रूप से अल्पार्थक 'इया प्रत्यय बना लिया, जो अपने सभी शब्दों में लगाती है, (तत्सम शब्दों में नहीं) --दिया. टिकिया. विदिया, मछरिया, मुंदरिया, अँखिया, विटिया. बटिबा, आदि । एमो अनल बातें हैं । यह तो निरुत को पहली पुस्तक है। इसमें व्यापक रूप से नियम और अपवाद सब कैसे दिये जा सकते हैं? दिशा-निर्देश मात्र है । जिस वर्ण का जैसे या जो परिवर्तन बतलाया है, वह दिङ-निर्देश भर है। यह मतलब नहीं कि उस वर्ण का अन्यथा विकास होता ही नहीं है। शब्द का शतधा विकास हो सकता है। उदाहरणार्थ हम हिन्दी के -- २३---संख्या-वाचक शब्द यहाँ लेते हैं। देखिए, कैमा विचित्र विकास हुआ है : संन्या- वाचक शब्दों का बड़ा मनोरंजक विकास है-कुछ के कुछ बन गये हैं ये ! वस्तुतः केवल संख्या-वाचक शब्दों का ही स्वछन्द विकास हुआ है । पड़े-पढ़े सभी तरह के लोगों का कान संख्या-वाचक शब्दों से पड़ता है। फिर १, २, ३, आदि पृथक संकेत जो (अंक-रूप में) स्थिर कर दिये गये. उसमें और भी शब्द-परिवर्तन स्वच्छन्द हो गया! नौ संकेत समझ लिये और करोड़ों का हिनाव-किताव करने लगे। (४२) लिख देने से सब समझ गये मतलब । अब कोई इसे 'बयालीस कहता है, कोई वतालीस' और कोई दुचालिस' भी कह सकता है। परन्तु ४२ मतलब सब को एक देगा। पर इस संख्या को सब भिन्न-भिन्तु हमों में बोलेंगे। यदि ये अंक न होते, नो कदाचित् संख्या-वाचक शब्दों में उतना परिवर्तन न होता। कुछ भी हो, इन (संख्या-वाचक) शब्दों से यह समझ में आता है कि भाषा का विकास किस तरह अनियंत्रित चलता है, यदि उसे लिपि-बद्ध कर के साहित्यिक रूप न दिया जाय। साहित्यिक हिन्दी ने भी संख्या- वाचक उन्हीं शब्दों को ग्रहण कर लिया है, जो इस तरह जनता में स्वतः उस रूप में विकसित हुए। एक से दस तक तो कोई बड़ा परिवर्तन नहीं है। एक तो 'एक' ही है: 'दो' से दस तक साधारण परिवर्तन है। आगे विचित्रता है । 'ग्यारह देखिए --'एक-दस का क्या रूप है ! आगे वारह-तेरह