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हिन्दी-निरुक्त :५१
 

अनेकधा विकास हुआ है--विशेषतः संन्या-वाचक विशेषणों का। इसकी चर्चा हम एक पृथक अनुच्छंद में करेंगे । पोळं आप देख ही चुके हैं कि हिन्दी ने 'दग' की स्वतंत्र का दम' कर के अदम किया: पर प्रक्रिया में दह' कर दिया: कहीं-कही रह भी तो, क्या इससे यह निष्कर्ष निकले कि 'दह पंजाब ने और रह किसी अजनबी भाषा से आया? तब पचास के लिए वन कहां ले आया ? 'बावन में 'या' यदि सिन्ध का है. तो वन' या काठियावाड़ का है ? किस प्राप्त में पचाल को वन कहते हैं ? पंचायत का विकास हिन्दी ने 'पचास' अपनायाः प्रक्रिया में वन में लायी:फिर पन' भी तो है-'तिरपन ! यह क्या बात है: बात यह कि भाषा किसी शब्द को अनेक कामों में भी ग्रहण करती है। हम गन्ने के रस का गुड़ भी बनाने हैं. सब भी. निरका भी, चीना भी सबक्याम् अन्तर है! रन का मन्नहर में भी हम उपयोग करते हैं। इसी तरह जीवित और चलतु भापा एक माद का अनेक वा विकास करना है और उन पदों का किंचित् अर्थ-भेद भी हो जाता है। ऋदाचित् अर्थ-भेद होने पर ही शब्द के स्वरूप में भेद होता हो । 'निःश्रेणी से 'नसेनो वना--काठ की सीढ़ी, ऊपर चढ़ने के लिए । फिर ईट-पत्थर को 'नमेनी के लिए 'सीड़ो' शब्द बना--'श्रेणी: से। श्रेणी-टुंडी को या इंट-पत्थर की एक व्यवस्थित पंक्ति। 'श्रेणी से वह अर्थ नहीं निकलता, जो 'सोड़ी से । नसेनी' से 'सीढ़ी में अन्तर है। पहले 'नसेनी' बना या सीढ़ी या दोनों साथ-साथ; यह अलग चर्चा है। वस्तुनः देहात में 'नसेनी का और शहर में साड़ी का बनना समझ में आता है । 'सीड़ी का ही 'पोड़ी कर लिया गया, वर्ण- विकार से । पोड़ी' भी नीचे से ऊपर या अपर से नीचे तक पहुँचने के लिए एक तरह की सीढ़ी ही समझिए। हां, हम कह रहे थे कि 'ब' तथा वा हिन्दी में सित्र ने आये; इस में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं । वस्तुत: हिन्दी ने 'द्वौ का 'दो' सो बनाया स्वतंत्र प्रयोग के लिए और 'व' का 'ब' तथा 'वा' बनाया प्रक्रिया के लिए: जैसे 'दस' स्वतंत्र प्रयोग के लिए और 'दह' नथा 'रह प्रक्रिया में । इस तरह 'बाईस आदि हुए। 'वीस का 'ईस' ! व् का लोप। स् के विकास की चर्चा थी। कहाँ से कहाँ पहुँच गये ! जैसे