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५० : हिन्दी-निरुक्त
 

किया, जिस का नाम वाद में उर्दू और फिर (अंग्रेजों ने) हिन्दुस्तानो रखा । नाम के साथ रूप में भी भेद हुआ। 'सो, सिन्ध का 'ब' या 'वा' हिन्दी में आ जाय, तो अचरज की बात नहीं; ऐसा कहा जा सकता है। परन्तु अच्छी तरह से विचार करने पर यह धारण गलत सावित होती है। किसी भाषा पर अन्य भाषा का प्रभाव पड़ता है; यह ठीक है, परन्तु उसके मौलिक गठन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। 'सिन्त्र' का हिन्द' तथा उससे 'हिन्दी लेकर भी हिन्दी भाषा ने शब्द के आदि में स्' को 'ह' अन्य किसी शब्द में ग्रहण नहीं किया। सिंध में 'सत्तर' को 'हत्तर' बोलते हैं; हम नहीं । हाँ, 'इकहत्तर' में 'ह' स्वोकार है। हिन्दी ने शब्द के आदि में 'स' को कभी भी 'ह' नहीं बनाया है। यह विशेषता है। दूसरी भाषाओं की क्रियाएँ, सर्वनाम तथा संख्यावाचक शब्द किसी भाषा को प्रभावित नहीं करते हैं। उर्द में फारसी-अरवी के लाखों अनावश्यक शब्द मुसलमान लेखकों ने भरे; परन्तु करना, उठना, पीना आदि क्रियाओं की जगह वे विदेशी भाषाओं के शब्द न ला सके ! यदि ला देते; लो फिर वह उर्दू' फारसी- अरवी ही बन जानी। इसी तरह सर्वनाम नहीं बदलते । संख्यावाचक शब्द बदलने का प्रयत्न कभी-कभी किया गया है; पर ठिठकते हुए। 'पाँच को उर्द में पंज' लिखते हैं; जो पञ्च' संस्कृत का फारसी- संस्करण है, जिसका हिन्दी-रूप 'पाँच' है । सप्त' का फारसी-संस्करण उर्दू में 'हप्त' चलता है; हिन्दी-संस्करण 'सात' वैसा नहीं। 'एक', 'दो', 'तीन', 'आठ आदि ज्यों के त्यों चलते हैं। कदाचित् इन शब्दों के फारसी-संस्करण उपलब्ध न हों। हिन्दी या उर्दू में 'सात के लिए 'सेविन' और 'पाँच' के लिए 'फाइव' नहीं चला सकते; क्योंकि भारत की मूल भाषा से इन का विकास स्पष्ट प्रतीत नहीं होता। सारांश यह कि किसी दूसरी भाषा के संख्यावाचक शब्द दूसरी भाषा में नहीं जाते हैं । उर्दू में 'हात' आदि तो राज-बल से चल पड़े। पर, सिन्धी के शब्द कैसे आते ? सिन्ध का हिन्दी-भापी क्षेत्र से वैसा लगाव भी नहीं; जैसा पंजाब आदि का । इसलिए, यह कैसे माना जाय कि सिन्धी भाषा का 'व' और 'वा' हिन्दी में आ मिला? और दाद क्यों नहीं आये? वस्तुतः वाल यह है कि लोक-भापाओं में किसी-किसी शब्द का