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हिन्दी-निरुक्त : ४१
 

१७--हिन्दी की 'का' विभक्ति हमारी हिन्दी की यह 'का दिमाकन कहाँ म. कैने आधी. जिम का उपयोग सम्बन्ध-प्रटन आदि में होना है--राम काका. राम के खेल, राम की कोड़ा। पंजाबी में-लम वा घर. राम दे बल, राम दी क्रीड़ा । दो, क्या का और दा में कोई सम्बन्ध है ? अन्यथा, इन की यह समान रूप-निप्पत्ति कैसे : का. के. की और दा, दे, दी! 'हेतुरत्र भविस्यति । सोचने से कुछ पता नो चलना है। ऐसा जान पड़ता है कि हिन्दी को 'का' विभाविन पंजादी की दा' विभक्ति का ही रूपान्तर है-कशीद वर्ष-विकार अप कहेंगे कि 'का' से ही 'दा' बन जाय, तो? क्या यह सम्भव नहीं कि हिन्दी की 'का विभक्ति ही पंजावी की 'दा' बन गयी हो: क और द अल्प- प्राण हैं। क को भी 'द हो सकता है और द को कभी। मही; माना कि वैसा हो सकता है। परन्तु यह भी तो बनाना होगा कि हिन्दी की इस का विभक्ति का मूल कहाँ है ? यह आमी कहाँ से? तब तो आगे कहा जा सकेगा कि इस से 'दाका विकास हुआ। मैं समझना हूँ, इस जिज्ञासा का समाधान सुरल काम नहीं है। इसे स्पष्ट करना होना; जिससे पता चलेगा कि पहले दा विभक्ति बनी; फिर वर्ण-विकार के द्वारा वह का' के रूप में आयी। हिन्दी में एक अलक्षित 'र' विभक्ति है. जिस में हिन्दी की पुं- विभक्ति (1) लग कर तुम्हारा', 'हमारा रूप बनते हैं। बंगाल में तो सभी तरह की संज्ञाओं में और सर्वनामों में इस का अव्याहत प्रयोग होना है.---'सीतार बन-दास', 'रामेर कथा', 'आमार निवेदन आदि । हिन्दी में यह केवल कुछ सर्वनामों में रह पायी हैः अन्यत्र 'का' का साम्राज्य है। परन्तु 'का' ने इसी 'र' के विषय पर अधिकार किया है। इसे एक कोने में जगह देकर । मजे की बात यह कि 'का विभक्ति इसी 'र' की सन्तान-परम्परा में है ! मानो ओरंगजेब का अवतार यह काइयाँ का है, जिन ने अपने बाप को जेल के कोने में कैद करके स्वयं वहुत बड़े साम्राज्य का आधिपत्य प्राप्त किया था! हाँ, तो इस 'र' विभक्ति से युक्त 'तिहारो' का रूप 'थारों मार- वाड़ में हो जाता है; यह कहा गया है। यही 'यारो' वहाँ आकर थारा हो जाता है, जहाँ 'तुम्हारा चलता है ! यही पंजाब का भी