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३६: हिन्दी-निरुक्त
 

आ गये। मो. 'मुन्नी की उत्पत्ति सुनिए। स्त्रियाँ प्रायः सभी देशों में मिर पर सुन्दर केश रखती हैं ! परन्तु छोटे बच्चों के केश कुछ दिन तक कटाते रहते हैं और प्रायः सात-आठ वर्ष की अवस्था से लड़कियों के केंदा रखने को चाल्न है । तो, छोटी बच्चियों को खिलाते समय पार में लोग 'मुन्नी-मुन्ना' कहने लगे; कोई-कोई सिर-मुन्नी भी। मुन्नी--मंडीजिस के सिर पर केश न हों, जो सिख न हो, उसे (सिख लोग) मुन्ना कहते हैं, जो कहीं-कहीं मौना' भी बन गया है। सो. 'मंडी' की कठोरता 'ड' में है, जिसे 'न' के रूप में बदल दिया गया । तर अनुस्वार भी 'न्' बन गया-'मुन्नी' । मुन्नी के अनुकरण पर 'मुन्ना को सृष्टि हुई.-स्त्रीलिंग से पुल्लिग। प्रसंगप्राप्त बात यह कि 'इ' को न हो जाता है और यह इसलिए हुआ कि पास में अनुस्वार विद्यमान था, न का प्रतिनिधि ! उस मीठे वर्ण ने पड़ोस में भी मिठास पैदा कर दी 'कोन' बना दिया। का ब् बन जाता संस्कृत में प्रसिद्ध है और फारसी में भी इसका आभास है। हमारा 'अ' फारसी में या हो गया है ! आद्य स्वर दीर्य और म् को न् । हिन्दी को तरह फारसी में भी संस्कृत से आये हुए व्यंजनान्त शब्द स्वरान्त हो जाते हैं । परन्तु हिन्दी में 'प' को 'ब' होते वैसा नहीं देखा जाता। काग, साग आदि की तरह जप को 'जब नहीं होता। आप कहेंगे कि हिन्दी में 'जव' शब्द अन्यार्थक मौजुद है। इसलिए वैना न हुआ होगा। ठीक; परन्तु 'साँव का साँब' भी तो नहीं होता ! 'पाप' का 'पाय' भी रहीं ! और कोई प्रयोग भी वसा सामने नहीं है; अनन्न भाषा-प्रवाह में कहीं कुछ बसा मिल भी जाय, तो अचरज नहीं । परन्तु प्रवृत्ति बैंसी नहीं है। ____ इस प्रकरण में एक बात छूटी जाती है। ऊपर हम ने कहा कि 'क' को हिन्दी में 'ग' होते देखा जाता है। परन्तु यह चीज उन्हीं शब्दों के सम्बन्ध में समझिए, जो संस्कृत से वहाँ आये हैं। संस्कृतोद्भुत (तद्भव) शब्दों में ही 'क' को 'ग' का रूप प्रायः मिलता है। परन्तु फारसी आदि विदेशी भाषाओं से आये हुए शब्दों के 'क' को 'ग' नहीं, बल्कि 'व' होते देखा जाता है--सन्डूक-सन्दूख, बन्दूक-बन्दूख, खाक-खाख आदि । मानो, हिन्दी ने जान-बूझकर संस्कृत में तथा विदेशी भाषाओं में अन्नर रखा है। विदेशी भापाओं से आये हुए शब्दों के प्रथम अक्षर (क) को द्वितीय अक्षर (ख) होता है और संस्कृत से आये हुए वैसे