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तीसरा अध्याय

१२-वर्ण-विपर्याय भाषा की इकाइयों में--पदों या शब्दों में-चलते-चलाते जो परिवर्तन होते रहते हैं, उन में वर्ण-विपर्यय या वर्ण-व्यत्यय का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। वर्गों के हेर-फेर को वर्ण-विपर्यय या वर्ण- व्यत्यय कहते हैं-किसी वर्ण का इधर से उधर या उधर से इधर सरक बैठना । पहले कहा जा चुका है कि यह सब उच्चारण-सौकर्य आदि कारणों से हुआ करता है--सदा से होता आया है और होता रहेगा। इन में से बहुत से विपर्याय-पूर्ण शब्दों को साहित्य ग्रहण कर लेता है; कुछ को नहीं भी लेता है । साधारण लोग 'लखनऊ' को प्रायः 'नखलऊ' बोल देते हैं, पर हिन्दी (या उर्दू) साहित्य ने 'नखलऊ रूप स्वीकार नहीं किया। पंजाब में 'चाकू' को 'काचू' बोल देते हैं, विशेषतः सिखों में, परन्तु पंजाबी-साहित्य में 'चाक' ही चलता है। सम्भव है, आगे कभी इन शब्दों को भी साहित्य स्वीकार कर ले, पर अभी तक तो इस के कोई चिह्न दिखायी नहीं देते। ___वर्ण-विपर्याय में जो एक सब से बड़ा कारण है, उस का उल्लेख हम बाद में करेंगे। पहले इस पर साधारण चर्चा आवश्यक है। यह वर्ण-विपर्यय हिन्दी-संस्कृत में ही नहीं; संसार की प्रत्येक भाषा में होता रहता है। हमारे यहां 'आगम-निर्गम्' शब्द प्रसिद्ध हैं- आना और निकलना। फारसी में निकलने के लिए तो 'रफ्त' है; पर आने के लिए उसने हमारा 'आगम' ले लिया है, कुछ वर्ण-व्यत्यय कर के । अन्तिम वर्ण 'म' को उठा कर बीच में रख दिया। परन्तु 'आमग' बोलने में अटपटा लगता है। इसलिए 'ग' को 'द' कर दिया गता-'वर्ण-विकार' शब्द बन गया--'आमद' । आप कहेंगे कि 'द' और 'ग' का स्थान तो एक है नहीं, तब एक के स्थान में दूसरा आ