जा सकता। यह वर्णागम नहीं, वर्ण-भ्रष्टता या वर्गसोकर्य है । भापा
का विकास जनता में होता है । साहब के बोलने में छोटावाला' शब्द
शुद्ध या विकसित न हो जायेगा ! जब विहारी जैसे महाकवि के कामा-
र्थक 'समर' शब्द को हम गलत कले हैं; क्योंकि वह जन-गृहीत नहीं
है, तब ये बिदेशी और हिन्दी-देषो साहब लोग तो गिनती ही में क्या
हैं कि इनके 'छोटावाला' को हम साधु मानकर भाप-विज्ञान में उसकी
पुष्टि करें !
उपर्युक्त 'वाला' शब्द संस्कृत के 'मतुप' (मत् प्रत्यय से बना है.
जिसका रूम शब्द-विशेष में 'वान होता है--धनवान, बलवान् आदि ।
इस 'वान्' के अन्त में अं का आगम करके हो गाडोवान' आदि हैं
और इसी के इस 'न' को 'ल' कर के और हिन्दी को -धजक आ
(1) विभक्ति जोड़कर बनीवाल कंडेवाली आदि प्रयोग हैं। 'न
का 'ल' हो जाना बहुत प्रसिद्ध है (बिना-बिला आदि); जो वर्ण-
विकार प्रकरण में बतलाया जायेगा। यह इतना प्रासंगिक हुआ।
संक्षेप यह कि भापा में वांगम समझने में मोटी-मोटी गलतियाँ
हो जाती हैं ! कोई सूक्ष्म गलती हो, तब तो कोई बात भी है। खैर,
यहाँ हम इस तरह की गलतियों का सुधार करने नहीं बैठे हैं। हमें तो
निरुक्त का प्रकरण-ग्रन्थ ही छोटा-मा लिखना है, जिसके आधार पर
आगे कोई बड़ी इमारत भी खड़ी की जा सकेगी; गम्भीर सिद्धान्त-
ग्रन्थ भी लिखा जा सकेगा। तभी उन चिन्त्य प्रयोगों पर वैसा ध्यान
दिया जा सकेगा, जो हिन्दी में भाषा-विज्ञान के ग्रन्थों में भरे पड़े हैं।
१०-'विकरण' और 'वर्णागम'
___ कभी-कभी प्रकृति तथा प्रत्यय के बीच में कोई वर्ण (स्वर या
व्यंजन) आ जाता है, जिसे व्याकरण में 'विकरण' कहते हैं; जैसे संस्कृत
में 'नत्' धातु (प्रकृति) और 'ति' (तिप) प्रत्यय के बीच में 'य' (श्यन)
और आ गया। यह 'य' विकरण है-'नत् यति'-'नत्यति' । वस्तुतः
यह 'विकरण' भी वांगम ही है। हिन्दी में संज्ञा-विभक्तियाँ (ने, को,
से, में, पर) परे हों, तो प्रकृति और इन विभक्तियों के बीच में---
११-- ओं' () 'विकरण
आ जाता है। तब प्रकृति के स्वर में परिवर्तन होता है; पर
विभक्ति ज्यों की त्यों बनी रहती है। अकारान्त तथा आकारान्त शब्दों
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हिन्दी-निरुक्त:२१