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१६:हिन्दी-निरुक्त
 

१.६:हिन्दी-निरस्त संयुक्तता साधारणतः लक्षित ही नहीं होती। ७-ह' की महिमा भापा-विज्ञान में 'ह' अक्षर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। चाहे जिस 'अल्पप्रा' को यह महाप्राण' वत्ता देता है । 'ऊष्म' वर्गों का यह सिरताज है। हिन्दी में श् तथा प् प्राय: ‘स्' के रूप में बदल जाते हैं और इस 'स' का स्थान प्रायः 'ह' लिया करता हैं । भाषा-विज्ञान में वर्गों के जो खेल आप देखेंगे, उनमें से आधे (खेल) इस एक महाप्राण के हैं और आधे में शेष सब स्वर-व्यंजन कूदते हैं ! एक 'ह' ही ऐसा अक्षर है, जिसे पाणिनि-ध्याकरण की मूल चतुर्दश-सूत्री में दो जगह स्थान मिला है। वहाँ अन्तःस्थ अक्षरों के बीच में भी यह जमा बैठा है. यद्यपि अन्तःस्थ है नहीं और ऊज्मावणा मता इसकी अविचलित स्थिति है ही। आगे वर्णों का आगम, विकार, विपर्यय, नाश आदि जो कुछ भी आप देखेंगे, इस 'ह' की सर्वत्र सत्ता सर्वोपरि पायेंगे। सब से अधिक काम 'ह' का है, विशेषतः हिन्दी में। वस. वर्गों के सम्बन्ध में इतना ही संक्षेप से कहना था । आवश्यक था । अव आगे 'वर्णागम' देखिये। . ८--वर्गागम पर विचार पहले कहा जो चुका है कि उच्चारण-सौकर्य आदि के लिए पदो या शब्दों में बांगम हुआ करता है। हिन्दी में स्वरागम अधिक देखने में आता है; व्यंजनागम कम । एक विशेष बात यह है कि स्वरा- गम प्रायः मध्य में होता है। हिन्दी की पूरवी 'बोलो' में 'हियाँ' और 'हाँ' शब्द प्रचलित हैं। कुछ पश्चिम में चलकर व्यंजनाश्रय (स्वरों) का लोप हो गया और सब्द बन गये-'ह्याँ', 'हाँ' । उर्दू साहित्य में, उर्दू की शायरी में 'ह्याँ' का प्रयोग प्रायः देखने को मिलता है, जो 'यहाँ' का पूर्व-रूप है। कभी-कभी ह, का लोप कर के 'याँ' रूप भी चलता देखा गया है। यानी उर्दू में 'यहाँ' के साथ-साथ 'हाँ' भी चलता है ; पर पद्य में हो। वही 'ह्याँ' कुछ और पश्चिम में (मेरठी प्रदेश या कुरु-जनपद में) 'ह्या सो' बन जाता है और 'हाँ' बन जाता है-'हाँ सी' । अर्थात् 'हाँ' तथा 'हाँ' में 'सी' का आगम हो गया। परन्तु जब इस (मेरठी)