पहला अध्याय मंडलो ने भक्ति को उन्मादकारिणी विह्वलता में जन-समाज को भी पागल बना दिया। उत्तर में राघवानंद और रामानंद तथा वल्लभाचार्य के प्रयत्न से वैष्णव भक्ति का प्रवाह सर्वप्रिय हो गया | राघवानंद रामानुजी श्रीवैष्णव थे और रामानंद उनके शिप्य, जिनका अलग ही एक संप्रदाय चला। गोसाई तुलसीदास उन्हीं के संप्रदाय में हुए । रामानंद ने सीताराम की भक्ति का प्रतिपादन किया और बल्लभ ने शुद्धाहत और पुष्टिमार्ग को लेकर राधा-कृष्ण की भक्ति चलाई। ठीक इसी समय उत्तर भारत के हिंदुओं को मुस्लिम-विजय के कारण समस्त विरक्तिमय धर्मों के उस मूल सिद्धांत का अपने ही जीवन में अनुभव हो रहा था, जिसके अनुसार संसार केवल दुःख का अागार मात्र है। उस समय वे ऐसी परिस्थिति में थे जिसमें संसार की अनित्यता का, उसके सुख और वैभव की विनश्वरता का स्वाभाविक रूप से ही अनुभव हो जाता है। अतएव अत्याचार के नीचे पिसकर विपत्ति में पड़े हुए हिंदुओं ने सांसारिक सुख और विभव से अपनी दृष्टि मोड़ ली, और उस एकमात्र आनंद को प्राप्त करने के लिए जिससे उन्हें वंचित रख सकना किसी की सामर्थ्य में नहीं था, वे वैष्णव श्राचार्यों द्वारा प्रचारित इस भक्ति की धारा में उत्सुकता के साथ डुबकी लगाने लगे। इस आनंद का उद्रेक देश के विभिन्न भागों से कवियों की मधुर वाणी में छलक-छलककर बहने लगा। बंगाल में उमापति (१०५० वि. सं०) और जयदेव ( १२२० वि० सं० ) अपने हृदय के मृदुल उद्गारों को दिव्य गीतों में पहले ही प्रकट कर चुके थे। जयदेव के जगत्प्रसिद्ध गीतगोविंद के राधामाधव के कोड़ा-कलापों की प्रतिध्वनि मैथिल कोकिल विद्यापति (१४५० वि० सं० ) की कोमल-कांत ‘पदावली' में सुनाई दी। गुजरात में नरसी मेहता ने, मारवाड़ में मीराबाई ने, मध्यदेश में
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