हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय से पता चलता है कि चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पल्लव राजाओं में भी भागवत धर्म का सम्मान था । गुजरात के वलभियों के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है । उनके छठी शताब्दी के शिलालेख से यह बात स्पष्ट है । सातवीं शताब्दी में बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित में पांचरात्र और भागवत दोनों का उल्लेख किया है। शङ्कर-दिग्विजय के अनुसार शंकर को पांचरात्र और भागवत दोनों से शास्त्रार्थ करना पड़ा था। शंकर का समय कोई सातवीं शताब्दी मानते हैं और कोई नवीं। दक्षिण भारत में यह नारायणीय भागवत धर्म कब प्रचारित हुश्रा, इसका कोई स्पष्ट अनुमान नहीं किया जा सकता । हाँ, इतना कहा जा सकता है कि अत्यन्त प्राचीन काल में ही वह वहाँ पहुँच गया था ; और दसवीं शताब्दी में यद्यपि शैव धर्म के प्रमुख स्थान को वह नहीं छीन सका था, फिर भी बद्धमूल तो अवश्य हो गया था। तामिलभूमि के आलवार संतों को हम इस शताब्दी से पहले ही पूर्ण वैष्णव पाते हैं। वैष्णव धर्म का अनुगमन वे केवल शब्दों द्वारा ही नहीं करते थे, प्रत्युत वह उनके समस्त जीवन में व्याप्त था । इन बालवार संतों ने सीधी- सादी तामिल भाषा की कविताओं में अपने हृदय के स्वाभाविक उद्गारों को प्रकट किया है । अंतिम प्रसिद्ध आलवार शटगोप अथया नम्मालवार था जिसके शिष्य नाथमुनि ने आलवारों की चार हजार कविताओं का एक वृहत् संग्रह प्रस्तुत किया था। इस संग्रह का तामिल में वेदतुल्य श्रादर है नाथमुनि से बालवारों की शाखा समाप्त हो जाती है और प्रसिद्ध प्राचार्यों की शाखा प्रारम्भ होती है। आलवार मायः नीची जातियों के वैष्णव प्राचार्यगण उच्च ब्राह्मण कुल के थे। नाथमुनि होते थे परन्तु
- 'इण्डियन ऐंटिक्वेरी', भाग ५, पृ० ५१ और १७६ ।