हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय 'रत्नावली' नामक पुस्तक-भवन अग्निशिखाओं को समर्पित कर दिया। केवल बख्त्यार ही की यह विनाशकारी प्रवृत्ति रही हो, सो बात नहीं। अल-बेरूनी सदृश प्राचीन इतिहास-लेखक भी इस बात का साक्ष्य देता है कि हिंदू विद्या और कलाएँ देश के उन भागों से जिन पर मुसलमानों का अधिकार हो गया था, भागकर उन भागों में चली गई थीं जहाँ उनका हाथ अभी नहीं पहुंच पाया था | जब तक मुसलमान विजेता लूट-पाट करके ही लौट जाते रहे, तभी तक यह बात न रही, जब मुसलमानों को देश में बस जाने की बुद्धिमत्ता का अनुभव होने लगा और वे बाकायदा राज्यों को स्थापना करने लगे तब भी देश की संतान को अधिक से अधिक चूसने की नीति का त्याग नहीं किया गया। जहाँ तक हो सकता था, राज्य की ओर से उनकी जीवन-यात्रा कंटकाकीर्ण बना दी जाती थी। उनके प्राण नहीं लिए जाते थे, यही उनके ऊपर बड़ी भारी कृपा समझी जाती थी। उनको जीवित रहने का भी कोई अधिकार नहीं था। मुसलमान शासक उनका जीवित रहना केवल इसलिए सहन कर लेते थे कि उनको मार डालने से राज्य- कर में कमी पड़ जाती और राजकोष खाली पड़ा रह जाता । अपने प्राणों का भी उन्हें एक कर देना पड़ता था जो 'जजिया' कहलाता था। सुलतान अलाउद्दीन के दरबार में रहनेवाले क़ाज़ी मुगासुद्दीन सरीखे धर्मनिष्ठ व्यक्ति को भी यह व्यवस्था स्वाभाविक और उचित जंचती थी । -- x रेवी-संपादित 'तबक़ाते ना सिरी', भाग १, पृ० ५५२; ईश्वरी- प्रसाद-'मेडीवल इंडिया', पृ० १२७ । + देखो पादटिप्पणी १, पृ० ३ । बरणी-'तारीख फ़ीरोजशाही"; "बिब्लोथिका इंडिका", पृ० २६०१; ईलियट, १० १८४; ईश्वरीप्रसाद–'मेडीवल इंडिया', पृ० २०८ और ४७५॥
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