हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय पहला अध्याय परिस्थितियों का प्रसाद इस क्षणिक जीवन के परवर्ती अनंत अमर जीवन के लिए श्राकुलता भारत की अन्तरात्मा का सार है। परलोक की साधना में ही वह इहलोक की सार्थकता मानती है। आत्मा और १. आमुख परमात्मा की ऐक्य-साधना का निर्देश करनेवाली मधुर वाणी का भारतीयों की भावना, रुचि और आकांक्षा के ऊपर सर्वदा से वर्णनातीत अधिकार रहा है। भारतीय जीवन में संचार करनेवाली श्राध्यात्मिक प्रवृत्ति की इस धारा के उद्गम अत्यन्त प्राचीनता के कुहरे में छिपे हुए हैं। युग-युगांतर को पार करती हुई यह धारा अबाध रूप से बहती चली आ रही है । प्रवाह-भूमि के अनुरूप कभी सिमटती, कभी फैलती, कभी बालुका में विलीन होती और फिर प्रकट होती हुई वह अनेक रूप अवश्य धारण करती आई है परंतु उसका प्रवाह कभी बंद नहीं हुआ। पंद्रहवीं शताब्दी में इस धारा ने जो रूप धारण किया, वह किसी उपयुक्त नाम के अभाव में 'निर्गुण संत संप्रदाय' कहलाता है। इसी संप्रदाय के स्वरूप का उद्घाटन इस निबंध का विषय है। इस संप्रदाय के प्रवर्तकों ने अपने सर्वजनोपयोगी
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