प्रयत्न किया था। तब से इधर मरहपा आदि वौद्ध मिद्धों की चर्या- गीतियों तथा दोहा-कोपों पर भी ध्यान दिया जाने लगा है और महा- पंडित राहुलसांकृत्यायन एवं अन्य विद्वानों को भी इस प्रकार का निश्चय होता जा रहा है कि उनकी अपभ्रंश-बहुल रचनाएँ न केवल हिंदी काव्य के सर्वप्रथम उदाहरण कहलाने योग्य हैं, अपितु, उनके विषय तथा रचनाशैली में हमें संत-साहित्य का आदि रूप भी लक्षित होता है । जान पड़ता है कि नाथों ने पहल पहल उक्त सिद्धों से ही प्रेरणा प्राप्त की होगी और उन पर पड़े हुए अनेक प्रभावों ने, क्रमशः आगे चलकर, इन संतों को प्रभावित किया होगा। इधर नाथ एवं नाथ- साहित्य से संबन्ध रखनेवाले कई ग्रंथों का प्रकाशन हुअा है । डा० वड़थ्वाल द्वारा संपादित 'गोरखबानी' सं० १६६६ में प्रकाशित हुई थी और उसकी 'भूमिका' से पता पता चलता है कि इस प्रकार का प्रका- शन वे अभी और करने जा रहे थे। उस समय तक इस विषय पर डा० मोहनसिंह की पुस्तक “गोरखनाथ एन्ड दी मिडीवल हिंदू मिस्टिसिज़्म" (Gorakhnath & Medieval Hindu Mysticism ) सं० १६६४ में निकल चुकी थी और डा० जी० डबल्यू० विग्स की पुस्तक 'गोरखनाथ ऐण्ड दि कनफटा योगीज' (Gorakhnath and The Kanphata Yogis ) भी सं० १९६५ में प्रकाशित हो चुकी थी। अब इस विषय पर डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी तथा डा० कल्याणी देवी की भी पुस्तकें शीघ्र निकलने जा रही है। सिद्ध साहित्य को लेकर भी इस समय खोज का काम अलग से चल रहा है। डा० पो० सी० वागची तथा डा० सुकुमार सेन ने उनकी रचनाओं के शुद्ध पाठ निकालने की चेष्टा की है और आशा है कि, हिंदी में भी इस पर एक पुस्तक शीघ्र निकल जाय। इस प्रकार बौद्ध सिद्धों से लेकर नाथों व संतों तक की क्रमागत विचारधारा पर इधर बहुत कुछ प्रकाश पड़ा है और डा० शशिभूषण दासगुप्त की पुस्तक 'पाब्सक्योर रिलिजस कल्ट्स'
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