ग्रन्थ' में संगृहीत पदों वा साखियों का सं० २००० में सम्पादन किया है इसी प्रकार डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी एक अच्छी पुस्तक 'कबीर' नाम से सं० १९६९ में प्रकाशित की और डा० धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी ने संत दरियादास की विविध रचनाओं की खोजकर अपनी थीसिस में उनपर बहुत कुछ प्रकाश डाला । इधर लखनऊ विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डा० त्रिलोकीनारायण दीक्षित ने मलूकदास की जीवनी और रचनाओं का अध्ययन किया है जो अभी प्रकाशित नहीं हुआ है। अब तो कबीर की मूल प्रामाणिक रचनाओं तथा 'बीजक' के शुद्ध पाठ एवं दादू, शिवनारायण, धरणीदास, आदि के ग्रंथों व पदों का भी अध्ययन प्रारम्भ हो गया है और चरणदासी, शिवनारायणी तथा रामसनेही सम्प्रदायों के मत व शिष्य-परम्परा के सम्बन्ध में भी खोजपूर्ण पुस्तकें लिखी जा रही हैं। जयपुर के 'दादू महाविद्या- लय' तथा स्व० पुरोहित हरिनारायण शर्मा के पुस्तकालयों में अभी सैकड़ों महत्वपूर्ण हस्तलेख प्रकाशन की प्रतीक्षा में पड़े हुए हैं । स्व० पुरोहित जी ने सुन्दरदास ( छोटे ) की रचनाओं का एक संग्रह सं० १९६३ में बड़े परिश्रम के साथ संपादित कर प्रकाशित किया था और उक्त 'दादू महाविद्यालय' के संचालक स्वामी मंगलदास जी सं० १९६३-६५ में अपनी 'संत साहित्य माला' के तीन 'सुमन' प्रकाश में लाये हैं । संतों के मूलग्रंथों वा फुटकर रचनाओं के पाठों का पूरी सावधानी के साथ अध्ययन कर, उन्हें संगृहीत व संपादित कर निकालना पहला व सबसे महत्वपूर्ण कार्य है जिस ओर इस साहित्य के प्रेमियों का ध्यान अधिकाधिक खिंचता जा रहा हैं। संतों की विचारधारा के मूल स्रोतों पर विचार करते समय डा० बड़थ्वाल का ध्यान गुरु गोरखनाथ प्रभृति नाम-पंथियों की रचनाओं की ओर, विशेष रूप से गया था और उन्होंने उनकी योग- साधना का सम्बन्ध परंपरागत योगप्रवाह के साथ जोड़ने का भी
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