तत्व को प्रत्यक्ष वा प्रात्मसात् कर लेती है। सहज समाधि की दशा शब्द व सुरति के संयोग का ही परिणाम है । संतों ने पिंड के भीतर की विभिन्न स्थितियों का वर्णन भी अपने ही ढंग से किया है । पूर्वकालीन संतों ने अधिकतर योगियों में प्रचलित विवरणों को स्वीकार किया था और वे उन्हीं के बतलाये हुए विविध खंडों वा पदों का उल्लेख कर अन्त में परमपद की ओर संकेत करते थे । परन्तु तुलसी साहब तथा विशेषकर शिवदयाल साहब और उनके अनुयायियों ने उक्त स्थितियों के वर्णन बड़े विस्तार के साथ किये हैं और षट्चक्र को एक प्रकार से केवल ठेठ पिंड का अंग मानकर उसके भी आगे के प्रदेश के पदों की, ब्रह्मांड के परे के देश और उसके भी आगे के प्रदेश के पदों की चर्चा की है। इन अंतिम पदों का परिचय पाना उनके अनुसार सबके लिए सुलभ नहीं है, इस कारण इनका अनु- भव केवल उन्हीं को हो पाता है जिन्हें सतगुर सुझा देने की दया दिखलाते हैं । संत शिवदयाल ने इन पदों का वर्णन पूरे विवरण के साथ किया है और इन्हें पूर्वकालीन संतों की भाँति भिन्न-भिन्न लोकों की संज्ञा दी है । परन्तु जैसा कि कबीर आदि कुछ संतों की अनेक रचनामों को ध्यानपूर्वक पढ़ने से विदित होगा, ये 'लोक' वा 'देश' वस्तुत: साधकों की विविध आध्यात्मिक दशाओं के केवल प्रतीक मात्र हैं, इनकी कोई साधारण सी भौतिक स्थिति नहीं है । इनके पदों का उक्त वर्णन ब्रह्मांड की देशगत स्थितियों के साथ इनका पूर्ण सामंजस्य प्रदर्शित करने की चेष्टा में किया गया प्रतीत होता है। सत्यलोक, सत्यखंड, अगमपुर, अमरपुर, संतदेश आदि नाम उस अंतिम पद की दशा को ही सूचित करते हैं जिसे संतों ने अपने लिए परमलक्ष्य माना है । उसे प्राप्त करके साधक परमतत्त्व का पूर्ण अनुभव कर लेता है और 'परचा' वा अपरोक्षानुभूति के प्रभाव के आ जाने पर उसके भीतर कायापलट हो जाता है।
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