में को है वह संतों को साम्प्रदायिक - साधना है । इसे सदा अत्यन्त गूढ़ रखा जाता रहा है और सम्प्रदाय के सच्चे अनुयायियों के अतिरिक्त, इसका भेद अन्य किसी पर भी कभी प्रकट नहीं किया जाता था । संतों की यह साधना योगाभ्यास की साधारए प्रणाली से कई वातों म मिलती हुई भी, उससे बहुत कुछ भिन्न है । संतों की साधना में शारीरिक साध- नाओं को वैसी प्रधानता नहीं जो हठयोगियों में दीख पड़तो है । यह उनकी अनेक वातों को ग्रहण करती हुई भी उसके आसन एवं मुद्रा आदि का वैसा उपभोग नहीं करती। इसमें वैसी प्रक्रियाएँ गौण मानी जाती हैं। संतों ने पिंड के भीतर विद्यमान समझे जाने वाले पट वक्र, त्रिकुटी ब्रह्मरंध्र आदि को प्रायः योगियों की ही भाँति स्वीकार किया है और 'कुंडलिनी-योग' का भी वर्णन लगभग उन्हीं की शब्दावली में किया है । परन्तु जिस प्रक्रिया को अोर उन्होंने सबसे अधिक ध्यान दिया है वह 'सुरति-शब्द-योग' है जिसके अभ्यास का प्रारम्भ उक्त साधना की अन्तिम स्थिति में ही मुलभ कहा जा सकता है ! डॉ० बड़थ्वाल ने अपने 'सुरति-निरति' वाले लेख में अन्यत्र बतलाया है कि किस प्रकार ब्रह्म के विवर्तन-द्वारा "ब्रह्म से शब्द ब्रह्म, त्रैगुण्य पञ्चभूत, अन्तःकरण अहंकार और स्थूल माया" के सहारे "चराचर सृष्टि का बन्धान खड़ा हुआ" है और जीव उसके बन्धन में पड़ा हुआ है। ब्रह्म के ऊपर इस प्रकार पड़ी हुई परतों अथवा प्रसिद्ध पंचकोशों की खोल के रहते हुए भी, उसका साक्षात् कर लेना सरल कार्य नहीं है । संत लोग इस उद्देश्य की सिद्धि, सुरति के द्वारा प्राप्त करते हैं जो हमारे भीतर वहाँ' की स्मृति के रूप में विद्यमान है और जो वस्तुतः जीव का अन्यतम स्वरूप ही कही जा सकती है। यही सुरति अनाहतनाद को अपना लक्ष्य बना-- कर उसकी अोर क्रमशः अग्रसर होती है और अन्त में उस ब्रह्म व परम. -दखिये योगप्रवाह, पृ० २३ ।
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