( ३० ) १७१५ में भाग लिया था। जिन्होंने सं० १७२६ में इस पंथ का प्रचार बड़ी लगन के साथ करना प्रारंभ किया था और जिसके द्वारा प्रभावित व्यक्तियों ने ही कदाचित उक्त विद्रोह का झंडा भी उठाया था। फिर भी उक्त विद्रोह की चर्चा करते समय उनका नाम नहीं लिया जाता। संभव है वे पहले वीरभान के 'साध संप्रदाय' के अनुयायी रहे हों और आगे चल कर सत्तनामी मत का प्रचार करने लगे हों। जो हो, जान पड़ता है कि डा० बड़थ्वाल ने सत्तनामियों की कोटवा-शाखा के प्रवर्तक जगजीवनदास के साथ केवल नाम-साम्य पर ही दादूशिष्य जगजी- वनदास को भी उनकी नारनील शाखा का प्रवर्तक अनुमान कर लिया है। दादूशिष्य जगजीवनदास का अभी तक कोई भी प्रत्यक्ष संबंध सत्त- नामी संप्रदाय के साथ सिद्ध नहीं किया जा सका है, इस कारण प्रमाएगों के अभाव में, उक्त प्रकार का निश्चय कर लेना भ्रमात्मक ही कहा जा सकता है। डा० बड़थ्वाल ने, इसी प्रकार, कुछ अन्य संतों व संत संप्रदायों के विषय में लिखते समय भी अधिकतर अनुमान से ही काम लिया है उदाहरण के लिए, बावरी साहिबा की परंपरा के.: (जसे उन्होंने यारी साहब का पंथ कहा है ) चर्चा करते समय, उन्होंने उसके संतों में एक नाम 'ललना' का भी गिना दिया है और बतलाया है कि इस संप्रदाय के अब तक अज्ञात संत ( बीरू, शाह फकीर आदि ) को वानियों के साथ-साथ ललना की भी रचनाएं मिलती हैं। परन्तु जिस ग्रंय (महात्माओं की वाणी ) में 'ललना' की बानियों का होना उन्होंने सिद्ध किया है उसमें वैसी कोई भी रचनाएँ आती नहीं जान पड़तीं । वास्तव में ललना' शब्द किसी व्यक्ति विशष का ना न न होकर, 'सोहर' जैसे गीतों में प्रयुक्त होने- वाली एक 'टेक' व विरामसूचक शब्द मात्र है और उक्त 'महात्माओं की वाणी' में प्रकाशित कतिपय बानियों में भी उसका वैसा ही प्रयोग पाया जाता है । डा० बड़थ्वाल ने, इसी प्रकार, संत बुल्लेशाह को परंपरागत
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