( २८ ) क्रमशः "काहु न मरम प.व हरि केरा" तथा "कहहि कबीर हम कहि- कहि थाके" पंक्तियाँ ऐसा करने में स्पष्ट वाधा डालती हैं और पूरे पद का अर्थ, व्यक्तिपरक न रहकर सर्व साधारण के प्रति किये गये उपदेश का रूप ग्रहए कर लेता है। डॉ० बड़थ्वाल ने संत दादूदयाल के शिष्य जगजीवनदास को भी सत्तनामी संप्रदाय की नारनौल शाखा का प्रवर्तक मान लिया है किंतु इसके लिए कोई प्रमाण नहीं दिया है और न उस जगजीवनदास के जीवनवृत्त पर कोई प्रकाश ही डाला है। दादू-शिष्य जगजीवनदास के विषय में अभी तक केवल इतनाही पता चलता है कि वे काशी में विद्योपार्जन कर चुकनेवाले एक धुरंधर विद्वान् थे जो देशाटन करते- करत बैलों पर लदी हुई अपनी पुस्तकों के साथ राजस्थान प्रदेश के ढूढाहण की ओर जा निकले थे। वे कट्टर वैष्णव थे, इस कारण आमेर में संत दादूदयाल की प्रसिद्धि का पता पाकर उनसे शास्त्रार्थ करने चले आये। शास्त्रार्थ करते समय संत दादूदयाल की मधुर वाणी एवं सुन्दर स्वभाव का उनके ऊपर इतना प्रभाव पड़ा कि उनके विचारों में घोर परिवर्तन आ गया और वे उनके शिष्य तक बन गये। कहा जाता है कि, अपना गर्व दूर होते ही उन्होंने अपने सारे ग्रंथ वहाँ के महावदे तालाब में डुबो दिये और गुरुसेवा में लग गये। उन्होंने अपने गुरुभाई छोटे सुन्दरदास को बहुत प्रोत्साहित किया था और उन्हें भी काशी में रहकर विद्याध्यन करने की प्रेरणा दी थी। वे टहलड़ी डूंगरी में निवास करते हुए कुछ दिनों तक भजन करते रहे थे और महाराजा मानसिंह ने तथा उदयपुर के महाराणा ने भी उनका बड़ा सम्मान किया था । टहलड़ी में उनकी परंपरा का केन्द्र आज भी वर्तमान है और उनके शिष्यों में कई अच्छे-अच्छे ग्रंथकार भी हो चुके हैं। उनकी वाणियों का भी एक संग्रह ग्रंथ 'बहुत बड़ा ग्रंथ' बतलाया.
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