हिन्दी काव्य में निर्गुण संशय अंधकारमय अथवा दुराचार-मूलक कर्मकांड से सम्बन्ध रखने वाला अभिप्राय भी बतलाना था और, अपनो पतित अवस्था में श्राकर, इसका दार्शनिक संकेत उक्त अनैतिक विधियों के छिपाने के लिए एक/ोहाना मात्र रह गया। पृष्ट ४३ से ६२ तक । नीचे (संख्या १ से लेकर १२ तक) की पाद टिप्पणियाँ कबीर के जीवनचरित की कुछ बातों के संबंध में दी जाती हैं । १--जाकै ईदि बकरी दि कुल गउरे बध करहिं । मानिय हि सेष सहीद पीरां । बापि वैसी करी पूत ऐसी सरी । निहूँ रे लाक परसित्र कबोरा ।। रैदास 'ग्रथ' पृ० ६९८ । जाके ईद बकरीद नित गऊरे बध करै, मानिये संख सहीद पीरा । बापि वैसी करी पूत ऐसी धरी, दाँव नवखंड परमिध कबीरा ।। पीपा, 'सर्वाग्री' (३७३-२२)। २--जुलाहा गर्भ उत्तन्यो साध कबीर महामु नि । उत्तम ब्रह्म सुमिरणं नाम तस्मात किंन्याति ( ज्ञाति) कारणम् ।। 'सर्वांगी' 'ग्रंथसाधम हिमां', १३ । यह एक विशेष बात है कि प्रासाम तथा बंगाल के 'जुगी' लोग सभी कातने व बुनने की ही जीविका करते हैं (दे० डिस्ट्रिक्ट गजेटियर- शिवसागर, पृ० ८५-८६, कामरूप, पृ० ७७, दुरंग पृ० ८५, चित्तागांग पृ० ६०, बोगरा पृ०६८-नोपाखाली पृ० ३७ और नवगांग का भी। ३--मेरी बोली पूरबी ताहि लखै नहिं कोइ । मेरी बोली सो लखै जो धुर पूरब का होइ ।। क० ग्रं॰, पृ० ७६ पाद टिप्पणी ।
पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/५१४
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