४३० हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय अप्रत्यक्ष रूप से आभारो हैं। आर्थर अवेलन के अध्ययन से भली भाँति स्पष्ट है कि गूढ़ शरीररचना का वह सारा ज्ञान जो निर्गणियों को नाथ-पंथी योगियों से प्राप्त हुअा था तंत्रों में ही विकसित हुश्रा था फिर भो निर्गुणियों के लिए तंत्रों का विकृत रूप ही सब कुछ था और कबार-द्वारा शाक्तों के प्रति प्रदर्शित की हुई घृणा आगे चल कर भी उसी प्रकार विद्यमान रहती श्राई। निश्चित रूप से यह कहा नहीं जा सकता कि कबीर के अनंतर कोई भी निर्गुणी संप्रदाय तांत्रिक प्रभावों से बच सकता था। गुलाल ने अमरोली सहजोली एवं कदाचित बज्रोली (जब्रोली १ ) को भी चर्चा उन्हें स्वीकार करते हुए से की है।x 'अनुरागसागर' के रचयिता ने पारस तथा मूल नामक उन साधनाओं के विरुद्ध भी श्रावाज उठायो है जो कतिपय निर्गुण पंथों में प्रचलित हैं और ये साधनाएँ लगभग उसी प्रकार की हैं जिस प्रकार की कनफटा योगियों की अमरोली हाती है। 'श्रमर मुल' (पृ. २२२-२२६) में कबीर पारस क्रिया को व्यावहारिक रूप देते हुए जान पड़ते हैं जिससे इस बात का समर्थन होता है x - जबरौली (बजरौली ?) अमरौली झोली जबरौली मन मान । सहजौली की रहनि जानिए, पंचये अकास समान ॥ म० बा०, पृ० १६३ । +जाहि नीरते काया होई । थापिहिं ताकहँ निजमत सोई ॥ काया मूल बीज है कामा । राखिहि ताकहँ गुप्तहि नामा ।। प्रथम हि थाका गप्तहि राखी । सीपहि साधि संधि तब भाखी । नारि अंग कह पारस दहे । प्राज्ञा माँगि शिष्य पहँ ले हैं । प्रथमहि ज्ञान शब्द समुहैं । तेहि पीछे फिर मूल पिलैहैं ।। पृ० १४२ । 8-कबीर-पारस पान बालकह दीजे ।...कामिनि कहँ पारस है सेवा । पृ० २२१ ।
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