परिशिष्ट ३. पृष्ट २६४ पंक्ति ७ । प्राध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ने के इस वर्णन से अंग्रेजी के लेखक 'बनियन' की पुस्तक 'पिलग्रिम्स प्राग्रेस' ( तीर्थयात्री का उत्तरोत्तर गमन ) का स्मरण हो सकता है क्योंकि इन दोनों यात्रामों में समानता लक्षित होती है। किंतु यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि वह तीर्थयात्रियों का आगे बढ़ना जहाँ आध्यात्मिक याना का एक रूपकात्मक चित्रण मात्र है और उसमें विविध कठिनाइयों का दिग्दर्शन कराया गया है वहाँ इन संतों के वर्णनों को हम वैसा नहीं कह सकते। उसके विपरीत यहाँ पर वास्तविक रूप में अनुभूत की गई. उन बातों का वर्णन है जो साधकों के सामने आया करती हैं। पृष्ठ ३०५ पंक्ति १६ । तांत्रिक प्रभाव-यह न समझना चाहिए कि गोरखनाथ ने वास्तविक तांत्रिक उपासना का सर्वथा परित्याग कर दिया था क्योंकि उन्होंने केवल इसके दृष्टिकोण में अतर ला दिया था और इसे सिद्धिप्राप्त योगियों के लिए एक प्रकार से कठिन परीक्षा का रूप दे दिया था जो सह जोली एवं अमरोली नामक भेदों से युक्त बज्रोली योगियों में प्रचलित है । उसका उद्देश्य चीय को कठिन दशा में भी सुर- क्षित रखना समझा जाता है। कबीर ने इसो तथा इसके समान अन्य अभ्यासों के लिए शाक्तों के प्रति घृणा प्रदर्शित की थी। किंतु तांत्रिक साधना का उपयोग कुछ और भी होता है जिसके लिए निर्गुणी लोग + विदु अनि म पि पारा । जो राव सो गुरू हमारा ।। योगश्वरी साखी। ....... ..विदु मभ्यासेनोर्वमाहरेत् । चलितंच निजं विदुमूर्ध्वमाकृj रक्षयेत् ॥ पृ० ४६ । पहजोलिइचामरोलिर्वजोल्या भेद एकतः । पित्तोल्बणत्त्वात्प्रथमाम्बुधारां, विहाय निःसार तयान्त्य धाराम । निषेव्यते शीतल मध्य धारा, कापालिके खंडमतेऽमरोली ॥ -गोरक्षपद्धनि, पृ० ५१ ।
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