हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय तत्व के साथ उनका प्रयोग एक साथ करता है। फिर उन्हीं के अनु- सार जो कोई परमात्मा का नाम मुख से लेता है वह मनुष्य हे जो हृदय से लेता है वह देवता ह, किंतु वास्तविक भजन प्रकाशित हो गये हुए पूरे श्रात्मा से ही हुआ करता है।* कबीरपंथ ही धर्मदासी शाखा के ग्रंथ 'अनुरागसागर' में भी कहा गया है कि अजपाजाप वह साधन है जिसमें मन, पवन, एवं शब्द सुसंगति के साथ केंद्रित हो जाते हैं और जिसमें जिह्वा, माला अथवा हाथ की कोई आवश्यकता नहीं पड़ा करती।। दादू का कहना है कि 'एक हिंदू रमणी अपने पति का नाम कभी नहीं लेती किंतु फिर भी उसके लिए अपने शरीर वा आत्मा का त्याग कर देती है।" यारो साहब के गुरु के गुरु बाबरी के शब्दों में, "इस प्रकार की उपलब्ध दशा से मनुष्य का सारा जीवन व्याप्त V-मन पवन अरु सुरति कौं, प्रातम पकड़े पाप । रज्जब लावै तत्त सों, योही अजपा जाप ।। सर्वांगी (१६-२२)। -मुष सों भजे सो मानवा, दिल सों भजे सो देव । जीव सों जपे सो ज्योति में, रज्जब सांची सेव ।। वही ( १६-२ )। 1-जाप अजपा हो सहज धुन, परख गुर गम धारिए । मन पवन थिर कर शब्द निरखं कर्म मन्मथ मारिए । हीत धुन रसना बिना कर, माल बिन निर्वारिए । सब्द सार विदेह निरखत, अमर लोक सिधारिए । वही, पृ० १३ ।
- --सुन्दरि कबह कंत का, मुष सों नाउ न लेइ ।
अपने पिय के कारने, दादू तनमन देइ ॥ 'बानी', ( वे० प्रे०) भा० १, पृ० २४१ ।