परिशिष्ट ३ परमात्मा की अनुभूति का साधन है और मन का वह रूप जिसे दबाने को अावश्यकता पड़ती है, 'खाकी' मन (अर्थात् धूल का बना मन ) है जिसे उसकी वैहिर्मुखी वृत्ति कहते हैं। मनोविकार अथवा इच्छो स्वभा- वतः दोषपूर्ण नहरें । जैसा कबीर ने बतलाया है "यह हमें राम के साथ भी मिला सकता है, यदि हम केवल इतना जान सकें कि इसे अपने हृदय में किस प्रकार सुरक्षित रखा जा सकता है। इससे भी अधिक स्पष्ट शब्दों में कबीर कहते हैं कि “यदि मन राम के साथ उसी प्रकार रमण करने लगे जिस प्रकार माया के साथ विलास करता है तो वह • तारामंडल से होता हुआ केशव के धाम तक पहुँच जायेगा।* निर्गुणो लोग इस कार्य को अपने प्रेम-द्वारा सिद्ध करना चाहते हैं। प्रेम अपनी विरह अथवा वियोग की वेदनापूर्ण सक्रिय दशा में साधक के सारे इंद्रिय- व्यापारों को उस परमात्मा में केंद्रित कर देता है जो भक्ति, कृपा एवं सौंदर्य का प्राधार स्वरूप हे और जो कामिनी जैसे निम्न मनोविकार के विषयों का स्थान ग्रहण कर लेता है। जिससे उसकी आँख, उसके कान, होठ तथा हृदय सभी उसकी ओर उन्मुख हो जाते हैं। योग एवं ज्ञान 1-काम मिलावै राम, जे कोइ जापों राप । कबीर बिचारा क्या करे, (जाकी) सुपदेव बोलें साथि ।। क० ग्रं०, (५१-११)
- -जैसे माया मन रमै, यों जे राम रमाइ ।
(तो) तारामंडल छाँ डि , जहँ के सौ तहँ जाइ ।। वही (६-२४) कामरिण अंग विरकत भया, रक्त भया हरि नाइ । साषी गोरपनाथ ज्यू अमर भये कलि मांइ ।। वही (५१-१२) X-नैन निहारों तुज्झको, स्रवन सुनों तव नांउ । बैन उचारहु तुव नाम जी, चरनकमल रिद ठांउ ।। वही (२५६-८५)